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________________ उनका शास्त्र चिंतन सत्य शोध की दिशा में अग्रेसर हुआ. यह उनके जीवन का क्रांतदर्शी काल माना जाना चाहिए. इसी काल में उनके मन-मस्तिष्क में क्रांति का बिगुल बजा. संस्कृत के मूल ग्रंथों का अनुवाद कर उन्होंने जनसुलभ करने को क्रांति का परचम फहराना माना. सर्वजनसुगम होने पर ही जैन संस्कृति का विकास होगा यह उनकी मनोधारणा हुई थी. यह इच्छा काशी में बैठ पूर्ण करना संभव नहीं होगा यह जान कर वे अहमदाबाद की ओर चल पडे. सेठ पूंजाभाई हीराचंदभाई द्वारा स्थापित जिनागम संस्था से जुड गए. यह १९९४ साल था. जिनागम संस्था का उद्देश्य स्पष्ट था. आगम का प्रामाणिक प्रमाणभूत अनुवाद उनका मिशन था. उस समय शास्त्र वचनों के अनुवाद • और अनुवादकर्ता को संकटों से मुकाबला करना पडता, जन प्रक्षोभ का बलि बनना पडता इतना ही नहीं लेकिन सुधारक वृत्ति के जनों को और सुधारक कहलवाने वाले सुधारक साधु-संत भी इस विरोध की आग को पी पचा नहीं सकते थे. इसी काल में महावीर जयंती के अवसर पर अहमदाबाद की एक जाहीर सभा में बेचरदास जी ने आगमों के अनुवाद का समर्थन करने वाला वाहक वक्तव्य सुनाया. उनके विरोध में एक बवंडर खड़ा हो गया. उस समय के विरोध का स्वरुप मात्र शाब्दिक विरोध तक ही सीमित मर्यादित स्वरुप का नहीं था. प्रत्यक्ष हाथापाई की संभावना थी. अपने मिशन से न डिगते हुए अकंप भाव से बेचरदास जी ने अपना कार्य जारी रखा मुंबई में डटे रह उन्होंने अपने नियोजित कार्य और कार्यक्रम में यत्किंचित् भी परिवर्तन नहीं होने दिया. इसी काल में १९१९ साल में मुंबई में मांगरोल जैन सभा की ओर से एक वक्तृत्व सभा का आयोजन किया गया था. उनके सचिव के विशेष आग्रह के कारण बेचरदास जी ने श्री मोतीचंद गिरधरलाल कापडिया की अध्यक्षता में अपना बहुचर्चित विद्रोही भाषण दिया. व्याख्यान का विषय था जैन साहित्य में उत्पन्न विकारों के परिणाम स्वरुप होने वाला नुकसान इस व्याख्यान ने जैन संघ के मधुमखिखयों के छत्ते में मानो पलिता लगा दिया, विरोध उफना. विचारक अंतर्मुख हुए चिंतन की नई दिशाएँ प्रकाशमान हुई. बेचरदास जी का और उनके मुक्त विचारों का स्वागत भी हुआ. पंडित जी के जीवन का एक क्रांतदर्शी अध्याय उनके इस व्याख्यान ने लिखा. अहमदाबाद के संघ ने बेचरदास जी को संघ से निष्कासित कर दिया. पंडित जी ने जीवन और व्यवहार के नग्न सत्य को बेबाक शैली में अभिव्यक्ति प्रदान की थी. लोक निंदा और जन प्रशंसा के दो ध्रुवों पर एक साथ कदम रखने वालों को भी क्या कभी सत्य का उच्चारण करना आया है ? पंडित जी अपनी राय पर कायम रहे. 1 इसी प्रकार उनका बहुचर्चित व्याख्यान 'देवद्रव्य ' शीर्षक का था. परंपरावादी रुढिप्रिय जनों के मन में क्षोभ का सागर उफन उठा. इस विषय की काफी चर्चा की गई. विरोधी खेमे के नेता थे विजयनेमसूरी जी ! दास जी संघ की बिनशर्त माफी माँगे अन्यथा उन्हें संघ से च्युत किया जाएँ यह मुद्दा ले कर उन्होंने आकाशपाताल एक कर दिया. विजयनेमसुरी जी ने बेचरदास जी को समझाने-मनाने की जिम्मेदारी संघवी जी को सौंपी. इतना ही नहीं अपने काम में असफल रहने पर संघवी जी को भी संघ से पदच्युत करने की बात विजयनेमसुरी जी ने कही थी. इस घटना के संदर्भ में अपनी साफ प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए श्री संघवी जी ने कहा था कि बेचरदास जी के वक्तव्य तथा लेखन में अगर त्रुटी होगी तो उसके चार गुना अधिक एकांगिता एवं त्रुटी स्वयं रुढीप्रिय साधुजन एवं उनका अनुसरण करने वाले श्रावकों में विद्यमान थी. उनमें जडत्व था. असहिष्णु भाव था. संघवी जी इस काम से सौ योजन दूर ही रहे. अपने क्रांतिकारी लेखन तथा वक्तव्य के कारण बेचरदास जी ने इस प्रकार से विरोध मोल लिया था. घाटकोपर में अन्य मित्रों के साथ बेचरदास जी भी थे. बेचरदास जी के माथे पर विरोध - बहिष्कृति के तूफान के मँडराने का वह काल था. अनेक डरपोक सलाहकारों ने उन्हें माफी माँगने की राय दी लेकिन वे पहाड के समान अकंप रहे. सुधारक और कुछ अमीर लोग भी उनके साथ थे. किसी का भी किसी भी प्रकार से विचार न करते हुए उन्होंने संघ की माफी माँगने के प्रस्ताव की धज्जियाँ उड़ा दी. निडरतापूर्वक बहिष्कार का मुकाबला किया. अपने सत्य को कायम रखा, अकंप रहे. अपने पुणे के अध्ययन-अध्यापन काल में श्री संघवी जी ने डॉ. रामकृष्ण जी भांडारकर की मुलाकात ली. इस मुलाकात के दरमियान उन्हें भेंट देने के लिए उन्होंने पंडित बेचरदास जी दोशी के ' भगवती सूत्र खंड
SR No.229265
Book TitleMahatma Gandhiji ke Jain Sant Sadhu
Original Sutra AuthorN/A
Author
PublisherZZZ Unknown
Publication Year
Total Pages20
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size193 KB
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