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के साथ शब्दशः एवं अर्थशः मिलते हैं, जो उनकी प्राचीनता एवं प्रामाणिकता के स्पष्टतः उद्घोषक हैं।
मूलाचार का, सन् १९१९ में मुनि अनन्तकीर्ति दिगम्बर ग्रन्थ माला द्वारा प्रकाशित संस्करण, मेरे समक्ष है। पं० श्री मनोहरलालजी शास्त्री का सम्पादन है, हिन्दी टीका है। नवम अनगार भावनाधिकार में मुनि के आहार की चर्चा है। आचार्य वट्टकेर, मुनि के लिए कन्द, मूल, फल आदि अपक्व-कच्चा खाने का निषेध करते हैं, पक्व का नहीं।
"फल-कन्द-मूल बीयं, अणग्गिपक त आमयं किंचि।
णच्चा अणेसणीयं, णवि य पडिच्छन्ति ते धीरा ॥८२५॥" -अग्नि पर नहीं पके, ऐसे फल, कन्द, मूल, बीज तथा अन्य भी जो कच्चा पदार्थ, उसको अभक्ष्य जान कर वे धीर-वीर मुनि खाने की इच्छा नहीं करते।
जं हवदि अणिव्वीयं, णिवट्टियं फासुयं कपं चेव ।
णाऊण एसणीयं, तं भिक्खं मुणी पडिच्छंति ॥८२६॥ -जो निर्बीज हो और प्रासुक किया गया हो, ऐसे आहार को खाने योग्य समझ कर मुनिराज उसके लेने की इच्छा करते हैं।
उक्त गाथाओं पर से स्पष्ट है कि मुनि कन्द, मूल आदि प्रासुक हों, तो उन्हें अशनीय (खाने योग्य) समझ कर आहार में ले सकता है। अनशनीयता के रूप में कन्दमूल का निषेध अपक्कता से सम्बन्धित है, पकता से नहीं।
क्या आलू सचमुच में कन्द है? आलू के सम्बन्ध में अलग से चर्चा कर रहा हूँ। बात यह है कि प्रान्तभेद से जैन-समाज में आलू खाया जाता है, कहीं नहीं भी खाया जाता। खास कर गुजराथ में नहीं खाया जाता। खाना और न खाना एक अलग बात है। परन्तु आलू को अनन्त काय कन्द मान कर उसे अभक्ष्य कहना और खाने वालों को घृणा की दृष्टि से देखा, यह युक्त नहीं है।
आलू विदेशों से आया है। वह कन्द की श्रेणि में नहीं आता। वह जड़ नहीं है अपित् तने में लगने वाला फल विशेष है। आल भूमि से ऊपर भी तने में लग सकता है। वह भूमि में नहीं पैदा होता। उसकी सुरक्षा एवं विकास के लिए मिट्टी अलग से ऊपर में दी जाती है। और उस मिट्टी की तह के नीचे वह विकास पाता है। यह बात साधारण वनस्पति-परिचय की पुस्तकों में भी देखी जा सकती है। स्थूल दृष्टि से ही भूमिगत होने की बात कही जाती है, जैसे कि काफी समय तक मूंगफली (सींगदाना) को भी भूमिगत होने के कारण व्यर्थ ही कन्द के रूप में वर्जित करते रहे हैं।
वस्तुस्थिति को सांगोपांग रूप से स्पष्टतया समझना आवश्यक है। व्यर्थ के पूर्वाग्रहों के आधार पर कुछ-की-कुछ कल्पना कर लेना और उस पर धार्मिक विग्रह एवं कलह खड़े कर देना, कथमपि उचित नहीं है। आल को कन्द समझ लेने और मान लेने के सम्बन्ध में इसी प्रकार का व्यर्थ विग्रह चल रहा है।
नई दनिया, इन्दौर का दिनांक ९-१२-८३ का अंक अभी-अभी एक धर्म बन्धु ने मुझे दिखाया है। उसके एक समाचार पर से आलू की स्थिति काफी स्पष्ट हो जाती है। लिखा है -
"मनीला के वैज्ञानिकों ने टमाटर और आलू के पौधे को मिलाकर पोमाटो' नामक एक नया पौधा तैयार किया है, जिस पर आधे टमाटर और आधे आलू की शक्ल के फल लगते हैं।"
दशवकालिक सूत्र के समान ही यहाँ मूलाचार में भी कन्द, मूल का फल और बीज आदि के साथ सामान्यतया वनस्पति के रूप में उल्लेख है। प्रत्येक वनस्पति से भिन्न, निषेध के लिए अभक्ष्य रूप में पृथक् उल्लेख नहीं है।
मैं समझता हूँ, अनाग्रह की यथार्थ दृष्टि के जिज्ञास, दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही, उक्त आगम कालीन प्राचीन स्पष्ट उल्लेखों पर से कन्द, मल की भक्ष्याभक्ष्य से सम्बन्धित विचार धारा का मर्म समझ जाएंगे और व्यर्थ के कदाप्रहों से अपने को अलग रखेंगे। प्रत्येक साधक को मान्यता और सिद्धान्त के अन्तर को समझ लेना आवश्यक है। अनेक प्रचलित मान्यताओं से सत्य कहीं परे होता है। उसे अनाग्रही साधक ही देख सकते हैं आग्रही नहीं- 'सत्यमेव जयते।'
वैज्ञानिकों की यह शोध, स्पष्ट रूप से टमाटर के समान ही आलू को भी एक फल विशेष ही प्रमाणित करती है। यदि आलू मूल में सचमुच ही कन्द होता, तो टमाटर के साथ वह फल के रूप में कैसे विकास प्राप्त करता?
कन्दमूल भक्ष्याभक्ष्य मीमांसा
"पण्णा समिक्खए धम्म
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