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नमोऽर्हत् सिद्धाचार्योपाध्याय सर्वसाधुभ्यः स्वरूप संस्कृत में संक्षेप करने वाले प्रकांड तार्किक व कवि श्रीसिद्धसेन दिवाकर को उनके गुरु श्री वृद्धवादि सूरिजी ने आगमसूत्रों को संस्कृत में रूपांतरित करने का विचार करने के लिये कठिन प्रायश्चित्त देकर थोड़े समय के लिये संघ बाहर निकाल दिया था !
इन बातों से पता चलता है कि प्रतिक्रमण के सूत्रों में कोई भी परिवर्तन करना उसके महत्त्व व उसी के प्रभाव का नाश करने वाला होता है । खुद तीर्थंकर परमात्मा भी दीक्षा के समय " करेमि भंते " सूत्र का पाठ करते हैं! किन्तु उसके अर्थ का उच्चारण नहीं करते हैं और उसी प्रकार मूल सूत्र का आदर करते हैं ।
यहाँ सिर्फ मूल शब्दों का ही महत्त्व बताया है किन्तु शास्त्रकारों ने तो मूल शब्दों के साथ-साथ उसके अर्थ को भी इतना महत्त्व दिया है क्योंकि बिना अर्थ के भावशुद्धि अध्यवसायशुद्धि सहजता से नहीं हो पाती है । अतएव शास्त्रकारों ने व्यंजन, अर्थ और तदुभय अर्थात् व्यंजन और अर्थ दोनों का ज्ञानाचार में समावेश किया है ।
संवत्सरी प्रतिक्रमण अर्थात् पर्युषणा की आराधना श्रमण भगवान श्री महावीर के समय से अविच्छिन्न रूप से चली आ रही है । हालाँकि इसी प्रतिक्रमण की विधि में प्रति शताब्दि या संप्रदाय भेद से थोडी सी भिन्नता हुई है । इस विधि में प्रायश्चित्त व कर्म क्षय के कार्यात्सर्ग, स्तवन, सज्झाय, ( स्वाध्याय) नित्य क्रम में आने के कारण प्रतिक्रमण की विधि के साथ जोड़ दिया गया हैं । इतना भाग प्रक्षिप्त है किन्तु मूलविधि में से कुछ भी कम नहीं किया गया है । श्री कल्पसूत्र ( बारसासूत्र ) में सामाचारी में श्री भद्रबाहुस्वामी ने स्वयं कहा है कि जिस प्रकार तीर्थकर परमात्मा ने चातुर्मास के पचासवें दिन पर्युषणा की आराधना की थी उसी प्रकार गणधर भगवंतों ने भी चातुर्मास के पचासवें दिन पर्युषणा किया । उसी प्रकार स्थविर मुनियों ने भी पर्युषणा किया । ठीक उसी प्रकार हम आचार्य, उपाध्याय आज भी चातुर्मास के पचासवें दिन पर्युषणा करते हैं किन्तु भाद्र शुक्ल चतुर्थी या पंचमी का उल्लंघन नहीं करना चाहिये ।
जहा णं समणे भगवं महावीरे वासाणं सवीसइ राए मासे विइक्कंते वासावासं पज्जोसवेइ, तहा णं गणहरावि वासाणं
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