________________
15 षड् आवश्यक : एक वैज्ञानिक विश्लेषण
याकिनी महत्तरासुनु भगवान हरिभद्रसूरिजी महाराज ने • योगविंशिका ' की प्रथम गाथा में कहा है कि " मोक्खेण जोयणाओ जोगो " जो प्रक्रिया आत्मा को मोक्ष के साथ जोड़े उसीको योग कहा जाता है । ' त्रिशलानंदन काश्यपगोत्रीय श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी ने सर्व जीवों के हित के लिये अनेक प्रकार की यौगिक प्रक्रियाओं का निरूपण किया है । उसमें छः | आवश्यक बहुत महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है | जैनदर्शन की एक विशेषता यही है। कि उसकी कोई भी क्रिया पूर्णतः सप्रयोजन, सहेतुक व वैज्ञानिक होती है| और उसमें आत्मा को कर्म से मुक्त करके मोक्ष देने की अचिन्त्य शक्ति होती
| छः आवश्यक साधु-साध्वी, श्रावक-श्राविकाओं के लिये एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है । यही छः आवश्यक प्रतिक्रमण में आते हैं और प्रतिक्रमण की यही विशिष्ट विधि श्रमण भगवान श्री महावीरस्वामी के समय से चली आती है। प्रथम तीर्थंकर श्री आदिनाथ प्रभु व अंतिम तीर्थंकर श्री महावीरस्वामी के समय में देवसि, राई, पक्खी, चौमासी एवं सांवत्सरिक ऐसे पाँच प्रकार के प्रतिक्रमण है । जबकि श्री अजितनाथ आदि बाईस तीर्थंकरों के समय में सिर्फ देवसि और राई दो ही प्रकार के प्रतिक्रमण थे ।' अर्थात् उनके समय में भी छ: आवश्यक तो थे ही । | छा आवश्यक में प्रतिक्रमण सबसे महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है क्योंकि उसमें सभी आवश्यक का समावेश होता है | इस विधि मूल सूत्र द्वादशांगी के रचयिता, तीर्थंकर परमात्मा के मुख्य शिष्य गणधरों ने रचे हैं ऐसी एक मान्यता परंपरा से चली आती है | गणधर भगवंतों ने द्वादशांगी की रचना अर्धमागधी भाषा में की थी और उसके उद्गम स्वरूप उपदेश चरम तीर्थंकर मी महावीरस्वामी ने अर्धमागधी भाषा में ही दिया था । श्री महावीरस्वामी ने उपदेश के लिये समग्न भारतवर्ष में प्रचलित व प्रयुक्त विभिन्न व विद्वमान्य संस्कृत भाषा को छोडकर अर्धमागधी भाषा को क्यों पसंद किया ? उसके प्रत्युत्तर में सामान्यतः ऐसा कहा जाता है कि लोग अच्छी तरह समझ सकें इस लिये प्रभु ने लोकभाषा स्वरूप अर्धमागधी भाषा में उपदेश दिया किन्तु
79
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org