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रह जायेगा ।" आदर्श की रक्षा के समझ पहली बात का तो आपकी दृष्टि में कोई विशेष मूल्य नहीं था, परन्तु दूसरी बात ने अवश्य आपको चिन्ता में डाल दिया | अपनी उपास्य सरस्वती माता की सेवा अधूरी छोड़ कर प्रयाण कर जाने की बात आपके हृदय ने स्वीकार नहीं की, और माँ के चरणों में नत हो अपना विचार छोड़ दिया। अब उनके सामने दूसरी समस्या थी; शरीर की रक्षा के अर्थ शाम को पानी लेना क्षुल्लक - वेश में सम्भव नहीं था । यद्यपि जानते थे कि इसका त्याग एक अतिभयंकर सामाजिक अपराध है, परन्तु माँ की सेवा के समक्ष इस अभिशापके साथ टक्कर लेने के लिये भी आप सीना तान कर खड़े हो गए । कुछ प्रमीजनोंने मोहवश आपको कुछ दिन छिपकर रहने की सलाह दी, परन्तु यह आध्यात्मिक चोरी आपके सत्यनिष्ठ हृदयने स्वीकार नहीं की । सत्य की रक्षा के लिये निन्दा की परवाह न करते हुए आपने उस वेशका त्याग कर दिया और साथही सारे पत्रोंमें इस बातकी सूचना प्रकाशित करा दी। इस क्रिया का प्रभाव जो होना था वह हुआ । प्रतिष्ठा का स्थान निन्दाने ले लिया परन्तु आपकी शान्त मुस्कान एक क्षरणको भी भंग नहीं हुई ।
यह होना कार्य करके आपने समाज में रहना उचित नहीं समझा और कलकत्ता चले गए । यह सुनते ही बनारस समाजके प्रतिष्ठित श्रावक श्री जयकृष्णजी अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी पर आपको बनारस ले आये । वहाँ ने पर बनारस की सारी समाजने आपको प्र ेम पूर्वक हृदय से लगा लिया । वहाँ ठहरकर आपने कोश प्रकाशन का कार्य अपनी देख रेख में पूरा कराया, और सन् १९७२ में बा० सुरेन्द्रनाथजी के ग्रामन्त्रण पर आप ईसरी चले गए ।
उद्देश्य की पूर्ति हो जाने पर देह त्यागवाली बात पुनः हृदय में चुटकियाँ भरने लगी, परन्तु इसी समय पुनः एक अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्यका दायित्व सर पर आ गया । पूज्य विनोबाजीकी प्र ेरणा हुई कि बौद्धोंके 'धम्मपद' की भांति अथवा हिन्दुओं के 'श्रीमद्भगवद्गीता' की भांति कोई विश्वमान्य जैन ग्रन्थ तैयार किया जाय परन्तु शर्त यह कि चारों जैन सम्प्रदायों के प्रसिद्ध प्राचार्य