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विद्याकी चार भूमिकाएँ
भी मेरी पगडंडीसे मुझे तो आनन्द और स्थिरता मिल रही है । मुझे विद्यार्थी जीवन चार विभागों अथवा भूमिकाओं में विभाजित दिखाई देता है 1: प्राथमिक माध्यमिक तकका प्रथम विभाग, माध्यमिक से उच्च शिक्षण तकका - बी. ए. अथवा स्नातक होने तकका - द्वितीय, अनुस्नातकका तृतीय और उसके बादका चतुर्थ ।
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हमारी प्रारंभिक शिक्षा शब्द प्रधान और स्मृति-प्रधान होती है। इसमें सीखनेवाले और सिखानेवाले दोनों की समझने और समझानेकी प्रवृत्ति भाषा के साधनद्वारा होती है। इसमें सीधा वस्तु ग्रहण नहीं होता । केवल भाषाद्वारा जो संस्कार पड़ते हैं वे स्मृति में पकड़ रखे जाते हैं । यहाँ मैं जिसे भाषा कहता हूँ उसमें लिखना, बोलना, पढ़ना और उच्चारण करना सब कुछ आ जाता है । इस प्रवृति से समझ और तर्कशक्ति विशेष उत्तेजित होती है, किन्तु वह अधिक अंश आयुपर निर्भर है ।
उसके बादकी दूसरी भूमिका संज्ञान अर्थात् समझ प्रधान है । विद्यार्थी जब कालेज में प्रविष्ट होता है उस समय भी भाषा और शब्दका महत्त्व तो रहता है, किन्तु इस भूमिकामें उसे विषयको पकड़कर चलना पड़ता है । इसी से पाठ्यक्रम में बहुत-सी पुस्तकें होनेपर भी वे सभी पूरी हो जाती है । यदि उसे वहाँ भी केवल स्मृतिका आधार लेकर चलना पड़े तो ऐसा नहीं हो सकता । इसलिए वहाँ शब्द नहीं, अर्थका महत्त्व होता है । इस अर्थ ग्रहणकी पद्धति में अन्तर दो सकता है किन्तु मुख्य वस्तुस्थिति इसी प्रकारकी होती है ।
उसके बाद की भूमिकामें समझके सिवाय एक नया तव आता है । इसके पहले की भूमिकाओं में शिक्षा, चर्चा, आलोचना इत्यादि सब दूसरों की ओर से आता था और समझ लिया जाता था, किन्तु अब तृतीय भूमिका में तारतम्य, परीक्षण-वृत्ति, किसी भी मतको अपनी बुद्धिपर कसकर देखनेकी परीक्षक-वृत्तिः और भी शामिल हो जाती है । इस समय विद्यार्थी ऐसा कर सकने की उम्र में पहुँच गया होता है | अतः पहले जिस पुस्तक अथवा अध्यापकको वह प्रमाणभूत मानता था उसका भी विरोध करने को तैयार हो जाता है ।
इसके बाद की भूमिका पी० एच० डी० होने के लिए की जानेवाली प्रवृत्ति है । शब्दप्रधान, समझप्रधान, विवेकप्रधान और परीक्षाप्रान विद्याध्ययनका उपयोग इस भूमिका में होता है । इसमें जो विषय
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