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धर्म और समाज
धार्मिक एवं राजकीय विषयोंमें भी दृष्टि और जीवनको बदले बिना नहीं चल सकता । प्रत्येक समाज अपने पंथका वेश और आचरण धारण करनेवाले हर साधुको यहाँ तक पूजता पोषता है कि उससे एक बिल्कुल निकम्मा, दूसरों पर निर्भर रहनेवाला और समाजको अनेक बहमोंमें डाल रखनेवाला विशाल वर्ग तैयार होता है । उसके भारसे समाज स्वयं कुचला जाता है और अपने कन्धे पर बैठनेवाले इस पंडित या गुरुवर्गको भी नीचे गिराता है । धार्मिक संस्था में किसी तरहका फेरफार नहीं हो सकता, इस झूठी धारणाके कारण उसमें लाभदायक सुधार भी नहीं हो सकते । पश्चिमी और पूर्वी पाकिस्तान से जब हिन्दू भारतमें आये, तब वे अपने धर्मप्राण मन्दिरों और मूर्तियों को इस तरह भूल गए मानो उनसे कोई सम्बन्ध ही न हो । उनका धर्म सुखी हालतका धर्म था । रूढ़िगामी श्रद्धालु समाज इतना भी विचार नहीं करता कि उसपर निर्भर रहनेवाले इतने विशाल गुरुवर्गका सारी जिन्दगी और सारे समयका उपयोगी कार्यक्रम क्या है ?
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इस देशमें असाम्प्रदायिक राज्यतंत्र स्थापित है । इस लोकतंत्र में सभीको अपने मतद्वारा भाग लेनेका जधिकार मिला है । इस अधिकारका मूल्य कितना अधिक है, यह कितने लोग जानते हैं ? स्त्रियों को तो क्या, पुरुषोंको भी अपने इकका ठीक-ठीक भान नहीं होता; फिर लोकतंत्रकी कमियाँ और शासनकी त्रुटियाँ किस तरह दूर हों ?
जो गिने-चुने पैसेवाले हैं अथवा जिनकी आय पर्याप्त है, वे मोटरके पीछे जितने पागल हैं, उसका एक अंश भी पशु-पालन या उसके पोषणके पीछे नहीं । सभी जानते हैं कि समाज जीवनका मुख्य स्तंभ दुधारू पशुओंका पालन और संवर्धन है । फिर भी हरेक धनी अपनी पूँजी मकान में, सोने-चाँदीमें, जवाहरात में या कारखाने में लगानेका प्रयत्न करता है परन्तु किसीको पशु संवर्धन द्वारा समाजहितका काम नहीं सूझता । खेतीकी तो इस तरह उपेक्षा हो रही है मानो वह कोई कसाईका काम हो, यद्यपि उसके फलकी राह हरेक आदमी देखता है ।
ऊपर निर्दिष्ट की हुई सामान्य बातोंके अतिरिक्त कई बातें ऐसी हैं जिन्हें सबसे पहले सुधारना चाहिए। उन विषयोंमें समाज जब तक बदले नहीं, पुरानी रूड़ियाँ छोड़े नहीं, मानसिक संस्कार बदले नहीं, तब तक अन्य सुधार
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