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धर्म और समाज
चाहिए । यह तो आत्म-सुधारकी बात हुई । अब यह भी देखना चाहिए कि युग कैसा आया है । हम जैसे हैं, वैसेके वैसे रहकर अथवा परिवर्तनके कुछ पैबन्द लगाकर नये युगमें नहीं जी सकते । इस युगमें जीनेके लिए इच्छा और समझपूर्वक नहीं तो आखिर धक्के खाकर भी हमें बदलना पड़ेगा। __समाज और सुधारक दोनोंकी दृष्टिके बीच केवल इतना ही अन्तर है कि रूढ़िगामी समाज नवयुगकी नवीन शक्तियोंके साथ घिसस्ता हुआ भी उचित परिवर्तन नहीं कर सकता, ज्योंका त्यों उन्हीं रूढ़ियोंसे चिपटा रहता है
और समझता है कि आज तक काम चला है तो अब क्यों नहीं चलेगा ? फिर अज्ञानसे या समझते हुए भी रूढिके बन्धनवश सुधार करते हुए लोकनिन्दासे डरता है, जब कि सच्चा सुधारक नये युगकी नयी ताकतको शीव्र परख लेता है और तदनुसार परिवर्तन कर लेता है। वह न लोक-निन्दाका भय करता है, न निर्बलतासे झुकता है । वह समझता है कि जैसे ऋतुके बदलनेपर कपड़ोंमें फेरफार करना पड़ता है अथवा वय बढ़नेपर नये कपड़े सिलाने पड़ते हैं, वैसे ही नयी परिस्थितिमें सुखसे जीनेके लिए उचित परिवर्तन करना ही पड़ता है और वह परिवर्तन कुदरतका था और किसी वस्तुका धक्का खाकर करना पड़े, इससे अच्छा तो यही है कि सचेत होकर पहलेसे ही समझदारीके साथ कर लिया जाय । __ यह सब जानते हैं कि नये युगने हमारे जीवनके प्रत्येक क्षेत्रमें पाँव जमा लिये हैं । जो पहले कन्या-शिक्षा नहीं चाहते थे, वे भी अब कन्याको थोड़ा बहुत पढ़ाते हैं । यदि थोड़ा बहुत पढ़ाना जरूरी है तो फिर कन्याकी शक्ति देखकर उसे ज्यादा पढ़ानेमें क्या नुकसान है ? जसे शिक्षणके क्षेत्रमें वैसे ही अन्य मामलों में भी नया युग आया है। गाँवों या पुराने ढंगके शहरोंमें तो पर्देसे निभा जाता है, पर अब बम्बई, कलकत्ता या 'दिल्ली जैसे नगरोंमें निवास करना हो और वहाँ बन्द घरोंमें स्त्रियोंको पर्देमें रखनेका आग्रह किया जाय, तो स्त्रियाँ खुद ही पुरुषोंके लिए भाररूप बन जाती है और सन्तति दिनपर दिन कायर और निर्बल होती जाती है। _ विशेषकर तरुण जन विधवाके प्रति सहानुभूति रखते हैं, परन्तु जब विवाहका प्रश्न आता है तो लोक-निन्दासे डर जाते हैं। डरकर अनेक बार योग्य विधवाकी उपेक्षा करके किसी अयोग्य कन्याको स्वीकार कर लेते हैं और अपने
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