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युषकोंसे
करते, सो अपने अज्ञानके कारण या शास्त्रोंकी निरर्थकताके कारण ? मैं युवकोंसे पूछता हूँ कि आप अपने समाजके लम्बे कालका कौन-सा कार्य संसारके सामने रख सकते हैं। देश विदेशके जैनेतर विद्वान् भी जैन साहित्यका अद्भुत मूल्यांकन करते हैं और उसके अभावमें भारतीय संस्कृति या इतिहासका पुंध अधूरा मानते हैं । विदेशोंमें लाखों रुपये खर्च करके जैन-साहित्य संग्रह करनेका प्रयत्न हो रहा है। ऐसी स्थितिमें जैन शास्त्रों या जैन साहित्यको जला देनेकी बात कहना पागलपन नहीं तो और क्या है ? __ तीर्थों और मन्दिरोंके ऐकान्तिक विरोधियोंसे मेरा प्रश्न है कि इस तीर्थसंस्थाके इतिहासके पीछे स्थापत्य, शिल्प और प्राकृतिक सौन्दर्यका कितना भव्य इतिहास छिपा हुआ है, क्या आपने कभी इस विषयमें सोचा है १ स्थानकवासी समाजको अगर उसके पूर्व पुरुषों के स्थान या स्मृतिके विषयमें पूछा जाय, तो वे इस विषयमें क्या कह सकते हैं ? क्या ऐसे अनेक तीर्थ नहीं हैं जहाँके मंदिरोंकी भव्यता और कलाको देखकर आपका मन यह कहनेको विवश हो जाय कि लक्ष्मीका यह उपयोग वास्तवमें सफल कहा जा सकता है ?
इसी भाँति दूसरे ऐकान्तिक पक्षसे भी मैं आदरपूर्वक पूछना चाहता हूँ कि अगर हमारे साधु वास्तव में सच्चे साधु हैं, तो आज उनमें गृहस्थवर्गसे भी ज्यादा मारामारी, पक्षापक्षी, तू तू मैं मैं, और एक ही धनिकको अपना अपना अनुयायी बनानेकी अव्यक्त होड़ क्यों चल रही है ? अक्षरशः शास्त्रोके माननेवालोंसे मेरा यह निवेदन है कि यदि शास्त्रोंके प्रति आपकी अनन्य भक्ति है, तो आपने उन शास्त्रोंको पढ़ने और विचारनेमें तथा देशकालानुसार उपयोगिता-अनुपयोगिताका पृथक्करण करने में कभी अपनी बुद्धि लगाई है या दूसरोंकी ही बुद्धिका उपयोग किया है ? मंदिर-संस्थाके पीछे सर्वस्व होम देनेवाले भाइयोंसे मेरा यह निवेदन है कि कितने मंदिरोंकी व्यवस्था करनेकी शक्ति आपमें है ? उनके ऊपर होनेवाले आक्रमणों का प्रतिकार करनेकी कितनी शक्ति आपके पास है ? एकतरफी धुनमें कहीं आप इसके आवश्यक कर्तव्य तो नहीं भूल जाते ? इस प्रकार दोनों पक्षोंसे पूछताछ कर मैं उनका ध्यान विवेककी
ओर आकर्षित करना चाहता हूँ। मुझे विश्वास है कि अगर दोनों वर्ग मर्यादामें रहकर विवेकपूर्वक विचार करें, तो अपने अपने वर्गमें रहकर काम करते हुए भी बहुत-सी कठिनाइयोंसे बच जायेंगे।
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