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धर्म और समाज
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१ निवृत्तिलक्षी प्रवृत्ति -- जैन समाज निवृत्ति प्रधान कहलाता है | हमें जोनिवृत्ति उत्तराधिकारमें मिली है वह वास्तव में भगवान महावीरकी है और वास्तविक है । परन्तु जबसे यह निवृत्ति उपास्य बन गई, उसके उपासक वर्गकी वृद्धि होती गई और कालक्रमसे उसका समाज बन गया, तबसे निवृत्तिने नया रूप धारण कर लिया । उत्कृष्ट आध्यात्मिक धर्म वास्तविक रूपसे विरले व्यक्तियोंमें दृष्टिगोचर होता और रहता है, वह समूहमें जीवित नहीं रह सकता, इसलिए जबसे उपासक - समूहने सामूहिक रूपसे आत्यंतिक निवृत्तिकी उपासना प्रारम्भ की, तबसे ही निवृत्तिकी वास्तविकतामें फर्क आने लगा । हमारे समाज में निवृत्ति के उपासक साधु और श्रावक इन दो वर्गों में विभक्त हैं । जिसमें आत्मरस ही हो और वासना - भूख जिसे नहीं बता रही हो ऐसे व्यक्तिको अपने देहका कोई मोह नहीं होता । उसे मकान, खानदान या आच्छादनका सुख-दुःख न तो प्रसन्न करता है और न विषाद ही उत्पन्न करता है। लेकिन ये चीजें समूहमें शक्य नहीं है । आत्मकल्याणके लिए संसारका त्याग करनेवाले साधु-वर्गका भी यदि इतिहास देखा जाय तो वे भी सुविधा और असुविधा में सम नहीं रह सके । दुष्काल पड़ते ही साधु सुभिक्षवाले प्रान्तमें विहार कर देते हैं । जहाँ सुभिक्ष होता है वहाँ भी ज्यादा सुविधाओंवाले स्थानोंमें ज्यादा रहते और विचरण करते हैं। ज्यादा सुविधावाले गाँवों और शहरों में भी जो कुटुंब साधुवर्गका ज्यादासे ज्यादा ख्याल रखते हैं उन्हींके घर उनका आना जाना ज्यादा होता है । यह सब अस्वाभाविक नहीं है । इसीलिए हमें सुविधारहित ग्रामों, शहरों और प्रान्तोंमें साधु प्रायः दृष्टिगोचर नहीं होते और इसके. परिणामस्वरूप जैन परंपराका अस्तित्व भी जोखिममें दिख पड़ता है ।
सुविधाओंके साथ जीवनके पालन-पोषण की एकरसता होते हुए भी साधुवर्गमुख्य रूपसे भगवान और अपने जीवन के अंतरके विषय में विचार न करके. देहमें क्या रखा है ? यह तो विनाशीक है, किसी समय नष्ट होगी ही । खेत, मकानादि सब जंजाल हैं, पैसा रुपया, स्त्री- बच्चे आदि सभी सांसारिक मायाजालके बंधन हैं, इत्यादि अनधिकार उपदेश प्रायः देते रहते हैं । श्रोता गृहस्थवर्ग भी अपने अधिकार और व्यक्तिका विचार न करके उक्त उपदेशके प्रवाह में बह जाते हैं । परिणाम यह है कि हमारे समाज में भगवानकी सच्ची निवृत्ति या अधिकार योग्य प्रवृत्ति, कुछ भी प्रतीत नहीं होती । वैयक्तिक,
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