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स्यागी संस्था
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शरीर-श्रमसे प्राप्त किये हुए साधनोंके बिना ही भोगवृत्ति संतुष्ट करनी पड़ती है । इसका परिणाम यह होता है कि त्यागी-संस्थाके सभ्यका जीवन कृत्रिम
और बेडौल हो जाता है । वे कर्म-प्रवृत्ति और परिश्रमका त्याग करके त्यागी कहलाते हैं; परन्तु दूसरोंके कर्म, दूसरोंकी प्रवृत्ति और दूसरोंके परिश्रमका त्याग बिलकुल नहीं कर सकते। ऐसी स्थिति में उन्हें लोगोंकी दानवृत्ति बहुत जगानी पड़ती है । दानके लाभ और यशोगानसे परिपूर्ण एक विपुल साहित्यका निर्माण । होता है । इसके कारण अशोक और हर्षवर्धन जैसे राजा अपने भण्डार खाली करते हैं और मठों, विहारों और चैत्योंमें प्रचुर आमदनीका प्रवाह जारी रखनेके लिए धनिक दाताओंकी ओरसे दानपत्र उत्कीर्ण किये जाते हैं। जैसे जैसे दानकी महिमा बढ़ती है वैसे वैसे दाता भी बढ़ते हैं और त्यागी-संस्थाका विस्तार भी होता है । जैसे जैसे विस्तार होता है वैसे वैसे आलस और पराश्रय बढ़ता है। इस तरह एक बड़े वर्गको समग्र रूपसे दूसरे वर्गके ऊपर निमना पड़ता है। सूक्ष्मतासे देखने और विचार करनेपर मालूम होता है कि त्यागी गने जानेवालोंकी आवश्यकताएँ भोगी वर्गकी अपेक्षा शायद ही कम हो । बहुतसे उदाहरणों में तो उलटी अधिक होती हैं। एक वर्ग यदि अपने भोगों में जरा भी कमी नहीं करता है और उन्हें प्राप्त करनेके लिए स्वयं श्रम भी नहीं करता है, तो स्वाभाविक रूपसे उसका भार दूसरे श्रमजीवी वर्गपर पड़ता है। इसलिए जितने परिमाणमें एक वर्ग आलसी और स्वश्रमहीन होता है, उतने ही परिमाणमें दूसरे वर्गपर श्रमका भार बढ़ जाता है । दानवृत्तिपर निभनेसे जिस प्रकार आलसका प्रवेश होता है और त्यागकी ओटमें भोग पोषा जाता है, उसी तरह एक भारी क्षुद्रता भी आती है। जब एक त्यागी दानकी महत्ताका वर्णन करता है तब वह सीधे या घुमा फिराकर लोगोंके दिल में यह ठसानेका प्रयत्न करता है कि उसकी संस्था ही विशेष दानपात्र है और अक्सर वह क्षुद्रता इस सीमा तक पहुँच जाती है, कि उसकी युक्तियोंके अनुसार उसे छोड़कर दूसरे किसी व्यक्तिको दान देनेसे परिपूर्ण फल नहीं मिलता । इस तरह इन संस्थाओंके द्वारा त्याग और दानवृत्तिके बदले वस्तुतः अकर्मण्यता, क्षुद्रता और लोभ-लालचका पोषण होता है।
त्यागी जीवन में कमाने और उड़ानेकी चिंता न होनेसे वह किसी भी क्षेत्र में, किसी भी समय, किसी भी तरहकी लोकसेवाके लिए स्वतन्त्र रह सकता है।
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