________________
धर्म और समाज
1
'एक शक्तिको थोड़ा बहुत होता ही रहता है । हम प्रत्येक अवस्थामें अपनी दैहिक, ऐन्द्रिक और मानसिक क्रियासे जो थोड़े बहुत परिचित रहा करते हैं, -सो किस कारण से ! जिस कारणसे हमें अपनी क्रियाओंका संवेदन होता है वही चेतना शक्ति है और हम इससे अधिक या कम कुछ भी नहीं है । और कुछ हो या न हो, पर हम चेतनाशून्य कभी नहीं होते । चेतनाके साथ ही -साथ एक दूसरी शक्ति और ओतप्रोत है जिसे हम संकल्प शक्ति कहते हैं । चेतना जो कुछ समझती सोचती है उसको क्रियाकारी बनानेका या उसे मूर्तरूप देनेका चेतनाके साथ अन्य कोई बल न होता तो उसकी सारी समझ बेकार होती और हम जहाँ के तहाँ बने रहते। हम अनुभव करते हैं कि समझ, जानकारी या दर्शनके अनुसार यदि एक बार संकल्प हुआ तो चेतना पूर्णतया -कार्याभिमुख हो जाती है । जैसे कूदनेवाला संकल्प करता है तो सारा बल - संचित होकर उसे कुदा डालता है । संकल्प शक्तिका कार्य है बलको बिखरनेसे -रोकना । संकल्प से संचित चल संचित भाफ़के बल जैसा होता है । संकल्प की - मदद मिली कि चेतना गतिशील हुई और फिर अपना साध्य सिद्ध करके ही - संतुष्ट हुई । इस गतिशीलताको चेतनाका वीर्य समझना चाहिए। इस तरह जीवन-शक्तिके प्रधान तीन अंश है— चेतना, संकल्प और वीर्य या बल । इस त्रिअंशी शक्तिको ही जीवन-शक्ति समझिए, जिसका अनुभव हमें प्रत्येक -छोटे बड़े सर्जन - कार्यमें होता है । अगर समझ न हो, संकल्प न हो और 'पुरुषार्थ - वीर्यगति - न हो, तो कोई भी सर्जन नहीं हो सकता । ध्यानमें रहे कि जगत में ऐसा कोई छोटा बड़ा जीवनधारी नहीं है जो किसी न किसी प्रकार सर्जन न करता हो। इससे प्राणीमात्रमें उक्त त्रिअंशी जीवन-शक्तिका पता चल जाता है । यों तो जैसे हम अपने आपमें प्रत्यक्ष अनुभव करते हैं वैसे ही अन्य प्राणियोंके सर्जन-कार्यसे भी उनमें मौजूद उस शक्तिका अनुमान कर सकते हैं । फिर भी उसका अनुभव, और सो भी यथार्थ अनुभव, एक अलग वस्तु है ।
૮૮
यदि कोई सामने खड़ी दीवालसे इन्कार करे, तो हम उसे मानेंगे नहीं । हम तो उसका अस्तित्व ही अनुभव करेंगे । इस तरह अपने में और दूसरोंमें -मौजूद उस त्रिअंशी शक्तिके अस्तित्वका, उसके सामर्थ्यका, अनुभव करना जीवन-शक्तिका यथार्थ अनुभव है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org