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सम्प्रदाय और कांग्रेस
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जब कट्टरपंथी जैन गृहस्थ और त्यागी धर्मगुरु तरुण पीढ़ीसे कहते हैं कि 'तुम गाँधी गाँधी पुकारकर कांग्रेसकी तरफ क्यों दौड़ते हो ! अगर तुमको कुछ करना ही है तो अपनी जाति और समाजके लिए क्यों नहीं कुछ करते ? " तरुण कोरा जवाब देते हैं कि " अगर समाज और जाति में ही काम करना शक्य होता और तुम्हारी इच्छा होती तो क्या तुम खुद ही इसमें कोई काम नहीं करते ? जब तुम्हारी जातीय और साम्प्रदायिक भावनाने तुम्हारे छोटेसे समाजमें ही सैकड़ों भेदोपभेद पैदा कर क्रिया- कांडके कल्पित जालोंकी एक बाढ़ खड़ी कर दी है, जिससे तुम्हारे खुदके लिए भी कुछ करना शक्य नहीं रहा, तब हमको भी इस बाड़ेमें खीचकर क्यों खिलवाड़ करना चाहते हो ? " इस प्रकार प्राचीन साम्प्रदायिक और नए राष्ट्रीय मानस के बीच संघर्ष चलता - रहा, जो अब भी चालू है ।
विचार-संघर्ष और ऊहापोहसे जिस प्रकार राष्ट्रीय महासभा का ध्येय और कार्यक्रम बहुत स्पष्ट और व्यापक बना है, उसी प्रकार नई पीढ़ीका मानस भी अधिकाधिक विचारशील और असंदिग्ध बन गया है। आजका तरुण ईसाई भी यह स्पष्ट रूप से समझता है कि गरीबों और दुखियोंकी भलाई करनेका ईसाका प्रेम संदेश यदि जीवनमें सच्ची रीति से उतारना अभीष्ट हो, तो उसके लिए हिन्दुस्तान में रहकर राष्ट्रीय महासभा जैसा दूसरा विशाल और असंकुचित क्षेत्र नहीं मिल सकता | आर्य समाज में भी नई पीढ़ीके लोगोंका यह निश्चय है कि स्वामी दयानन्दद्वारा प्रतिपादित सारा कार्यक्रम उनके दृष्टिबिन्दुसे और भी अधिक विशाल क्षेत्रमें अमल में लानेका कार्य कांग्रेस कर रही है । इस्लाम में भी नई पीढ़ीके लोग अपने पैगम्बर साहबके भ्रातृभावके सिद्धान्तको कांग्रेस के पंडालमें ही मूर्तिमान होता देख रहे हैं । कृष्ण के भक्तोंकी नई पीढ़ी भी उनके कर्मयोगकी शक्ति कांग्रेस में ही पाती है। नई जैन पीढ़ी भी -महावीरकी अहिंसा और अनेकांत दृष्टिकी व्यावहारिक तथा तात्विक उपयोगिता कांग्रेस के कार्यक्रमके बाहर कहीं नहीं देखती । इसी कारण आज जैन समाजमें एक प्रकारका क्षोभ पैदा हो गया है, जिसके बीज वर्षों पहले बोये जा -चुके थे। आज विचारशील युवकों के सामने यह प्रश्न है कि उनको अपने विचार और कार्य-नीतिके अनुकूल आखिरी फैसला कर लेना चाहिए । जिसकी
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