SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११ I तख चिन्तन के ऐतिहासिक विकास-क्रमकी दृष्टिसे भी सोच सकते हैं । यह निर्विवाद तथ्य है कि सूक्ष्मातिसूक्ष्म जन्तुओंसे लेकर बड़ेसे बड़े पशु-पक्षी जैसे प्राणियोंतक में जो जिजीविषामूलक अमरत्वकी वृत्ति है, वद दैहिक या शारीरिक जीवन तक ही सीमित है । मनुष्येतर प्राणी सदा जीवित रहना चाहते हैं पर उनकी दृष्टि या चाह वर्तमान दैहिक जीवनके आगे नही जाती । वे आगे या पीछेके जीवन के बारेमें कुछ सोच ही नहीं सकते । पर जहाँ मनुष्यत्वका प्रारंभ हुआ वहाँसे इस वृत्तिमें सीमा-भेद हो जाता है । प्राथमिक मनुष्य-दृष्टि चाहे जैसी रही हो या अब भी हो, तो भी मनुष्य जातिमें हजारों वर्ष पूर्व एक ऐसा समय आया जब उसने वर्तमान दैहिक जीवनसे आगे दृष्टि दौड़ाई | मनुष्य वर्तमान दैहिक अमरत्वसे संतुष्ट न रहा, उसने मरणोत्तर जिजीविषामूलक अमरत्व की भावनाको चित्तमें स्थान दिया और उसीको सिद्ध करने के लिए यह नाना प्रकार के उपायोंका अनुष्ठान करने लगा । इसी में से बलिदान, यज्ञ, व्रत नियम, तप, ध्यान, ईश्वर भक्ति, तीर्थ सेवन, दान आदि विविध धर्म मागाँका निर्माण तथा विकास हुआ । यहाँ हमें समझना चाहिए कि मनुष्य की दृष्टि वर्तमान जन्मसे आगे भी सदा जीवित रहने की इच्छासे किसी न किसी उपायका आश्रय लेती रही है । पर उन उपायोंमें ऐसा कोई नहीं है जो सामुदायिक वृत्ति या सामुदायिक भावनाके सिवाय पूर्ण सिद्ध हो सके । यज्ञ और दानकी तो बात ही क्या, एकांत सापेक्ष माना जानेवाला ध्यानमार्ग भी आखिर को किसी अन्यकी मदद के बिना नहीं निभ सकता या ध्यानसिद्ध व्यक्ति किसी अन्य में अपने एकत्र किये हुए संस्कार डाले विना तृप्त भी नहीं हो सकता । केवल दैहिक जीवनमें दैहिक सामुदायिक वृत्ति आवश्यक है, तो मानसिक जीवनमें भी दैहिकके अलावा मानसिक सामुदायिक वृत्ति अपेक्षित है। जब मनुष्य की दृष्टि पारलौकिक स्वर्गीय दीर्घ जीवनसे तृप्त न हुई और उसने एक कदम आगे सोचा कि ऐसा भी जीवन है जो विदेह अमरत्व पूर्ण है, तो उसने इस अमरत्वकी सिद्धिके लिए भी प्रयत्न शुरू किया । पुराने उपायोंके अतिरिक्त नये उपाय भी उसने सोचे । सबका ध्येय एकमात्र अशरीर अमरत्व रहा । मनुष्य अभी तक मुख्यतया वैयक्तिक अमरत्वके बारे में सोचता था, पर उस समय भी उसकी दृष्टि सामुदायिक वृत्तिसे मुक्त न थी । जो मुक्त होना चाहता था, या मुक्त हुआ माना जाता था, वह भी अपनी श्रेणीमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229197
Book TitleDharm ka Bij aur Uska Vikas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Dharma_aur_Samaj_001072.pdf
Publication Year1951
Total Pages7
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size314 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy