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________________ प्राचीन जैनागमों में चार्वाक दर्शन का प्रस्तुतीकरण एवं समीक्षा : १२९ वे जीव और शरीर को पृथक्-पृथक् करके नहीं दिखा सकते। वे यह भी नहीं बता सकते कि आत्मा दीर्घ है या ह्रस्व है या वह परिमण्डलाकार अथवा गोल है। वह किस वर्ण और किस गन्ध से युक्त है अथवा वह भारी है, हल्का है, स्निग्ध है या रुक्ष है, अत: जो लोग जीव और शरीर को भिन्न नहीं मानते उनका ही मत यक्तिसंगत है।" क्योंकि जीव और शरीर को निम्नोक्त पदार्थों की तरह पृथकपृथक् करके नहीं दिखाया जा सकता, यथा .. १. तलवार और म्यान की तरह २. मुंज और इषिका की तरह ३. मांस और हड्डी की तरह ४. हथेली और आंवले की तरह ५. दही और मक्खन की तरह ६. तिल की खली और तेल की तरह ७. ईख और उसके छिलके की तरह ८. अरणि और आग की तरह इस प्रकार जैनागमों में प्रस्तुत ग्रन्थ में ही सर्वप्रथम देहात्मवादियों के दृष्टिकोण को तार्किक रूप से प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया है। पुन: उनकी देहात्मवादी मान्यता के आधार पर उनकी नीति सम्बन्धी अवधारणाओं को निम्न शब्दों में प्रस्तुत किया गया है - यदि शरीर मात्र ही जीव है तो परलोक नहीं है। इसी प्रकार क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, भला-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, स्वर्ग-नरक आदि भी नहीं हैं। अतः प्राणियों के वध करने, भूमि को खोदनें, वनस्पतियों को काटने, अग्नि को जलाने, भोजन पकाने आदि क्रियाओं में भी कोई पाप नहीं है। प्रस्तुत ग्रन्थ में देहात्मवाद की युक्तियुक्त समीक्षा न करके मात्र यह कहा गया है कि ऐसे लोग हमारा ही धर्म सत्य है, ऐसा प्रतिपादन करते हैं और श्रमण होकर भी सांसारिक भोग विलासों में फंस जाते हैं। इसी अध्याय में पुन: पंचमहाभूतवादियों तथा पंचमहाभूत और आत्मा मानने वाले सांख्यों का भी उल्लेख हुआ है। प्रस्तुत ग्रन्थ की सूचना के अनुसार पंचमहाभूतवादी स्पष्ट रूप से यह मानते थे कि इस जगत् में पंचमहाभूत ही सब कुछ है जिनसे हमारी क्रिया-अक्रिया, सुकृत-दुष्कृत, कल्याण-पाप, अच्छा-बुरा, सिद्धि-असिद्धि, नरक-गति या नरक के अतिरिक्त अन्यगति; यहां तक कि तिनके के हिलने जैसी क्रिया भी होती है, क्योंकि आत्मा तो अकर्ता है। उस भूत समवाय (समूह) को पृथक्-पृथक् नाम से जानना चाहिए जैसे कि- पृथ्वी एक महाभूत है, जल दूसरा महाभूत है, तेज तीसरा महाभूत है, वायु चौथा महाभूत है और आकाश पाँचवा महाभूत है। ये पाँच महाभूत किसी कर्ता के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229190
Book TitlePrachin Jainagamo me Charvak Darshan ka Prastutikaran
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Publication Year2003
Total Pages8
LanguageHindi
ClassificationArticle & philosophy
File Size331 KB
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