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________________ प्राकृत एवं अपभ्रंश जैन साहित्य में कृष्ण पूजी जाती है वहां जैन परम्परा में वासुदेवहिण्डी और जिनसेन के उत्तरपुराण के कथनानुसार कंस उसे मारता नहीं है अपितु नाक काटकर अथवा नाक चपटी करके छोड़ देता है। यही बालिका आगे साध्वी के रूप में दीक्षित हो जाती है और अपनी ध्यानसाधना के द्वारा देव गति को प्राप्त करती है। किन्तु हरिवंश में जिनसेन (द्वितीय) ने यह उल्लेख किया है कि उसकी अंगुली के रक्त से सने हुए तीन टुकड़े से वह त्रिशूलधारिणी काली के रूप में विन्ध्याचल (मिर्जापुर के समीप ) में प्रतिष्ठित हो जाती है। जिनसेन ने इस देवी के सम्मुख होनेवाले भैंसों के वध की भी चर्चा की है जो विन्ध्याचल में आज तक प्रचलित है। इस प्रकार जिनसेन द्वितीय ने इस कथानक को हिन्दू परम्परा के साथ जोड़ा है। : १०९ कृष्ण की बाल लीलाओं के सम्बन्ध में दोनों परम्पराएँ लगभग समान मन्तव्य रखती हैं। यद्यपि श्रीमद्भागवत के अनुसार कंस के द्वारा भेजे गये सभी असुर आदि कृष्ण या बलभद्र के द्वारा मार डाले जाते हैं, जबकि जिनसेन प्रथम तो जैनों के अहिंसा के दृष्टिकोण के आधार पर इन्हें राक्षस न कहकर देव या देवियाँ कहता है। दूसरे कृष्ण या बलदेव उन्हें मारते नहीं है अपितु हराकर जीवित ही छोड़ देते हैं। यद्यपि प्रश्नव्याकरणसूत्र के अनुसार कृष्ण के द्वारा इन्हें मारे जाने का उल्लेख है। हेमचन्द्र अपने त्रिशष्टिशलाकापुरुषचरित में जिनसेन के समान ही यह मानते हैं कि श्रीकृष्ण इन्हें हराकर भगा देते हैं। जहां जिनसेन प्रथम ने इन्हें देवी-देवता के रूप में स्वीकार किया है, वहीं हरिवंशपुराण में जिनसेन द्वितीय इनका कंस के द्वारा भेजे गये उन्मत्त प्राणियों के रूप में उल्लेख करते हैं। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके है कि जहां हिन्दू परम्परा में पाण्डवों एवं कृष्ण के जीवन के साथ महाभारत के युद्ध की घटना जुड़ी हुई है वहां जैन आगम ग्रन्थों में महाभारत की घटना का सर्वथा अभाव है। यद्यपि परवर्ती जैन लेखकों ने महाभारत की घटना का उल्लेख किया है। जहां हिन्दू परम्परा कंस को कृष्ण के मुख्य प्रतिद्वन्द्वी के रूप में चित्रित करती है वहां जैन परम्परा में कृष्ण का मुख्य प्रतिद्वन्द्वी जरासन्ध को माना गया है। क्योंकि वह प्रतिवासुदेव है और उस पर विजय प्राप्त करके ही कृष्ण वासुदेव के पद को प्राप्त करते हैं। यद्यपि यादवों और द्वारका के विनाश के मूल में यदुवंशी का मद्यपायी होना दोनों ही परम्परा में समान्य रूप से स्वीकार किया गया है । फिर भी जैन परम्परा में द्वारका और यादव वंश के विनाश को कुछ भिन्न तरीके से चित्रित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229188
Book TitlePrakrit aur Apbhramsa Jain Sahitya me Krishna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Publication Year2003
Total Pages14
LanguageHindi
ClassificationArticle & Mithology
File Size439 KB
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