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________________ जैन आगम साहित्य में श्रावस्ती : ९५ किन्तु जहां श्रावस्ती में उस युग के विभिन्न धर्म सम्प्रदायों के बीच विरोध और संघर्ष के स्वर मुखर हुए थे, वहीं महावीर और पार्श्व की परम्पराओं के सम्मिलन का स्थल भी यही नगर था। श्रावस्ती नगर के तिन्दुक उद्यान में पापित्य परम्परा के आर्य केशी विराजित थे, वहीं इसी नगर के कोष्ठक उद्यान में महावीर के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति गौतम विराजित थे। दोनों आचार्यों के शिष्य नगर में जब एक दूसरे से मिलते थे तो उनमें यह चर्चा होती थी कि एक ही लक्ष्य के लिए प्रवृत्त इन दोनों परम्पराओं में यह मतभेद क्यों है? केशी और गौतम अपने शिष्यों की इन शंकाओं के समाधान के लिए तथा महावीर और पार्श्व की परम्पराओं के बीच कोई समन्वय-सेतु बनाने के लिए परस्पर मिलने का निर्णय करते हैं और गौतम ज्येष्ठ कुल का विचार करके स्वयं केशी श्रमण के पास मिलने हेतु जाते हैं। केशी श्रमण गौतम को सत्कारपूर्वक आसन प्रदान करते हैं। श्रावस्ती के अनेक व्यक्ति भी दोनों आचार्यों की इस विचार चर्चा को सुनने हेतु एकत्र हो जाते हैं। दोनों आचार सम्बन्धी मतभेदों तथा आध्यात्मिक साधना के विभिन्न समस्याओं पर खुलकर विचार-विमर्श करते हैं। दोनों का श्रावस्ती में यह सौहार्दपूर्ण मिलन ही पार्श्व और महावीर की परम्पराओं के बीच समन्वय सेतु बना। इसी प्रकार श्रावस्ती स्कन्दक नामक परिव्राजक और भगवान महावीर के पारस्परिक मिलन का और लोक, जीव, सिद्धि आदि सम्बन्धी अनेक दार्शनिक प्रश्नों पर चर्चा का स्थल भी रहा है। भगवतीसूत्र में प्राप्त उल्लेख के अनुसार श्रावस्ती नगर में आचार्य गर्दभिल्ल के शिष्य कात्यायनगोत्रीय स्कन्दक परिव्राजक निवास करते थे। उसी नगर में निर्ग्रन्थ वैशालिक अर्थात् भगवान महावीर का श्रावक पिंगल भी निवास करता था। पिंगल और स्कन्दक के बीच लोक, जीव और सिद्धि की सान्तता और अनन्तता पर चर्चा होती है। स्कन्दक इस चर्चा के समाधान के लिए स्वयं श्रावस्ती के निकट ही स्थित कृतमंगलानगर, जहाँ पर भगवान महावीर और गौतम विराजित थे, वहाँ जाता है । गौतम महावीर के निर्देश पर स्कन्दक परिव्राजक का समादर पूर्वक स्वागत करते हैं, उसे महावीर के समीप ले जाते हैं और दोनों में फिर इन्हीं प्रश्नों को लेकर विस्तार से चर्चा होती है। अन्त में स्कन्दक महावीर के विचारों के प्रति अपनी आस्था प्रकट करते हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर श्रावस्ती महावीर की अपनी परम्परा में ही उत्पन्न विद्रोह का नगर है वहीं दूसरी ओर महावीर की परम्परा का अन्य परम्पराओं के साथ कितना सौहार्दपूर्ण व्यवहार था, इसका भी साक्षी स्थल है। वस्तुत: ऐसा लगता है कि श्रावस्ती के परिवेश में विचार स्वातन्त्र्य और पारस्परिक सौहार्द के तत्त्व उपस्थित थे। इस नगर के नागरिकों की यह उदारता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229187
Book TitleJain Agam Sahitya me Shravasti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Publication Year2003
Total Pages4
LanguageHindi
ClassificationArticle & Geography
File Size270 KB
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