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________________ भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध : ९ साहित्यिक प्रमाणों की अपेक्षा से हमें जो प्राचीनतम ग्रन्थ उपलब्ध है, वह ऋग्वेद है। ऋग्वेद न केवल भारतीय साहित्य अपितु विश्व साहित्य का प्राचीनतम ग्रन्थ है। दूसरी ओर पुरातात्त्विक दृष्टि से जो साक्ष्य हमें उपलब्ध है उनमें मोहनजोदड़ो और हड़प्पा ही प्राचीनतम हैं। वैदिक और श्रमण संस्कृतियों में कौन प्राचीन है इसका ऐतिहासिक दृष्टि से निर्णय इन्हीं दो साक्ष्यों पर निर्भर करेगा। जैसा कि हम पूर्व में उल्लेख कर चुके हैं, साहित्यिक साक्ष्यों में ऋग्वेद प्राचीनतम है। ऋग्वेद में श्रमणधारा के प्रमुख शब्दों में अरहन्त, वातरशनामुनि, श्रमण, व्रात्य आदि का उल्लेख प्राप्त होता है। ऋग्वेद आर्हत् और बार्हत् ऐसी दो परम्पराओं का भी स्पष्ट रूप से उल्लेख करता है। ऋग्वेद में इन दोनों परम्पराओं के उल्लेख इस तथ्य को प्रतिपादित करते हैं कि ऋग्वेद के रचनाकाल में दोनों ही परम्पराएं अपना अस्तित्व रखती थीं। ऋग्वेद में न केवल अरहन्त एवं अर्हत् शब्द मिलते हैं, अपितु आर्हत् परम्परा का और उसके आद्य संस्थापक ऋषभ के भी उल्लेख हैं। ऋग्वेद में ११२ ऋचाओं में 'ऋषभ' शब्द का उल्लेख है। यद्यपि सर्व स्थलों पर 'ऋषभ' शब्द तीर्थकर ऋषभ का वाचक है, यह कहना तो कठिन है किन्तु उन ऋचाओं के आधार पर यह मानना भी सम्भव नहीं है कि वे सभी ऋचाएं सामान्यत: वृषभ (बैल) की वाचक हैं। यह एक सुस्पष्ट तथ्य है कि - औपनिषदिक सूक्तों और वैदिक ऋचाओं में अनेक ऐसी हैं जो प्रतीकात्मक हैं। क्योंकि उन्हें प्रतीकात्मक माने बिना उनका कोई भी वास्तविक अर्थ नहीं निकल सकता। उदाहरण के रूप में श्वेताश्वतरोपनिषद् का यह कथन लें, "अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः प्रजा: सृजामानासरूपा'- सामान्य शाब्दिक अर्थ की दृष्टि से इसका अर्थ होगा कि लाल, काले और सफेद रंग की एक बकरी अपने ही समान सन्तानों को जन्म देती है, किन्तु दार्शनिक दृष्टि से इसका अर्थ है कि सत्व, रजस् और तमस्गुण से युक्त प्रकृति अपने ही समान सृष्टि को जन्म देती है। वस्तुत: यही स्थिति ऋग्वेद की ऋषभवाची ऋचाओं की हैं। अत: उनका प्रतीकात्मक अर्थ किस प्रकार जैन या श्रमण परम्परा से सम्बद्ध प्रतीत होता है, इसकी विस्तृत चर्चा हमने ऋग्वेद में ऋषभ वाची ऋचाएं नामक एक लेख में की है। विस्तार भय से यहां उस चर्चा में उतरना तो सम्भव नहीं है, किन्तु इतना निश्चित है कि ऋग्वेद के काल में इस देश में आर्हत् और बार्हत् दोनों ही परम्पराएं जीवित थी अर्थात् वैदिक और श्रमण धाराओं का सह-अस्तित्व था। जहां तक पुरातात्त्विक साक्ष्यों का प्रश्न है मोहनजोदड़ो और हड़प्पा के उत्खनन में अनेक ऐसे प्रमाण उपलब्ध हैं जो श्रमण या आर्हत् परम्परा के अस्तित्व को सिद्ध करते हैं। हड़प्पा के उत्खनन में हमें ध्यानस्थ योगियों की अनेक सीलें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229175
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Do Pramukh Maha Ghatako ka Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Publication Year2003
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size460 KB
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