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________________ भारतीय संस्कृति के दो प्रमुख घटकों का सहसम्बन्ध है। शारीरिक स्तर पर वह जैविक वासनाओं से चालित है और इस स्तर पर उस पर जैविक यांत्रिक नियमों का आधिपत्य है । यही उसकी परतन्त्रता भी है। किन्तु चैतसिक स्तर पर वह विवेक से शासित है। यहां उसमें संकल्प स्वातंत्र्य है। शारीरिक स्तर पर वह बद्ध है, परतन्त्र है किन्तु चैतसिक स्तर पर वह स्वतन्त्र है, मुक्त है। दैहिक आवश्यकताओं की पूर्ति और आध्यात्मिक तोष वह इन दोनों में से किसी भी एक की उपेक्षा करने में समर्थ नहीं है। एक ओर उसका वासनात्मक अहं उसके सम्मुख अपनी मांगें प्रस्तुत करता है तो दूसरी ओर उसे विवेक चालित अपनी अन्तरात्मा की बात भी सुननी होती है। उसके लिये इन दोनों में से किसी की भी पूर्ण उपेक्षा करना सम्भव नहीं है। मनुष्य के जीवन की सफलता इसी में है कि वह अपने वर्तमान अस्तित्व में इन दोनों छोरों में एक सांग-संतुलन बना सके। मानवीय संस्कृति में श्रमण और वैदिक धाराओं के उद्भव के मूल में वस्तुतः मानव अस्तित्व का यह द्विआयामी या विरोधाभासपूर्ण स्वरूप ही है। मनुष्य को दैहिक स्तर पर वासनात्मक तथा चैतसिक स्तर पर आध्यात्मिक जीवन जीना होता है। वैदिक एवं प्रवर्तक धर्मों के मूल में मनुष्य का वासनात्मक जैविक पक्ष ही प्रधान रहा है। जबकि श्रमण या निवर्तक धर्मों के मूल में विवेक बुद्धि प्रमुख रही है। आगे हम यह विचार करेंगे कि इन प्रवर्तक और निवर्तक धर्मों की विकास यात्रा का मनोवैज्ञानिक क्रम क्या है ? और उनके सांस्कृतिक प्रदेय किस रूप में हैं ? : वैदिक एवं श्रमणधारा के उद्भव का मनोवैज्ञानिक आधार मानव-जीवन में शारीरिक विकास वासना को और चैतसिक विकास विवेक को जन्म देता है। प्रदीप्त वासना अपनी सन्तुष्टि के लिये 'भोग' की अपेक्षा रखती है तो विशुद्ध - विवेक अपने अस्तित्व के लिये 'संयम' या 'विराग' की अपेक्षा करता है। क्योंकि सराग-विवेक सही निर्णय देने में अक्षम होता है। वस्तुतः वासना भोगों पर जीती है और विवेक विराग पर। यहीं दो अलग-अलग जीवन-दृष्टियों का निर्माण होता है। एक का आधार वासना और भोग होता है तो दूसरी का आधार विवेक और विराग। श्रमण परम्परा में इनमें से पहली को मिथ्या दृष्टि और दूसरी को सम्यक् दृष्टि के नाम से अभिहित किया गया है। उपनिषदों में इन्हें क्रमशः प्रेय और श्रेय के मार्ग कहे गये हैं। कठोपनिषद् में ऋषि कहता है कि प्रेय और श्रेय दोनों ही मनुष्य के सामने उपस्थित होते हैं। उनमें से मन्द-बुद्धि शारीरिक योग-क्षेम अर्थात् प्रेय को और विवेकी पुरुष श्रेय को चुनता है । वासना की तुष्टि के लिये भोग और भोग के साधनों की उपलब्धि के लिये Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229175
Book TitleBharatiya Sanskruti ke Do Pramukh Maha Ghatako ka Sambandh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_6_001689.pdf
Publication Year2003
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Culture
File Size460 KB
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