________________
१३९
१५१ वें द्वार में चौरासी लाख जीव योनियों का विवेचन किया गया है। इस द्वार में पृथ्वीकाय की सात लाख, अपकाय की सात लाख, अग्निकाय की सात लाख, वायुकाय की सात लाख, प्रत्येक वनस्पतिकाय की दस लाख, साधारण वनस्पतिकाय की चौदह लाख, द्वीन्द्रिय की दो लाख, त्रीन्द्रिय की दो लाख, चउरिन्द्रिय की दो लाख, नारक चार लाख, देवता चार लाख, तिर्यञ्च चार लाख, मनुष्यों की चौदह लाख प्रजाति (योनि) मानी गयी है।
१५२वें द्वार में कालत्रिक, द्रव्य षट्क, नवपदार्थ, जीव निकाय षट्क, षट्लेश्या, पंच अस्तिकाय, पांच व्रत, पांच गति, पांच चारित्र का निर्देश है।
१५३ वें द्वार में गृहस्थ उपासक की ग्यारह प्रतिमाओं का विवेचन है । ये ग्यारह प्रतिमायें निम्न हैं: (१) दर्शन प्रतिमा (२) व्रत प्रतिमा (३) सामायिक प्रतिमा (४) पौषधोपवास प्रतिमा (५) नियम प्रतिमा (६) सचित त्याग प्रतिमा (७) ब्रह्मचर्य प्रतिमा (८) आरम्भ त्याग प्रतिमा (९) प्रेष्य त्याग प्रतिमा (१०) औद्देशिक आहार त्याग प्रतिमा (११) श्रमणभूत प्रतिमा ।
१५४वें द्वार में विभिन्न प्रकार के धान्यों के बीज कितने काल तक सचित्त रहते हैं और कब निर्जीव हो जाते हैं: इसका विवेचन किया गया है।
१५५ वें द्वार में कौन सी वस्तुयें क्षेत्रातीत होने पर अचित हो जाती हैं इसका विवेचन किया गया है। इसी क्रम में १५६ वें द्वार में गेहूं, चावल, मूंग-तिल आदि चौबीस प्रकार के धान्यों का विवेचन है।
१५७ वें द्वार में समवायांगसूत्र के समान सत्रह प्रकार के मरणों (मृत्यु) का विवेचन है।
१५८ वें और १५९ वें द्वारों में क्रमशः पल्योपम और सागरोपम के स्वरूप का विवेचन उपलब्ध होता है। इसी क्रम में १६० वें और १६१ वें द्वारों में क्रमशः अवसर्पिणी काल और उत्सर्पिणीकाल के स्वरूप का विवेचन किया गया है उसके पश्चात् १६२ वें द्वार में पुद्गल परावर्त काल के स्वरूप का विवेचन 'हुआ है! १६३ वें और १६४ वें द्वारों में क्रमश: पन्द्रह कर्म भूमियों और तीस अकर्म भूमियों का विवेचन किया गया है।
१६५ वें द्वार में जातिमद, कुलमद आदि आठ प्रकार के भेदों (अहंकारों) का विवेचन है।
१६६ वें द्वार में हिंसा के दो सौ तिरालिस भेदों का विवेचन उपलब्ध होता है। इसी प्रकार १६७ वें द्वार में परिणामों के एक सौ आठ भेदों की चर्चा की
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org