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१३८ गया है।
१३५३ द्वार में यह बताया गया है कि नगर की कल्पना पूर्वाभिमुख वृषभ के रूप में करे उसके पश्चात् उसे उस वृषभ रूप कल्पित नगर में किस स्थान पर निवास करना है, इसका निश्चय करे। इसमें यह बताया गया है किस अंग/क्षेत्र में निवास करने का क्या फल होता है।
१३६वें द्वार में किस ऋतु में किस प्रकार का जल किसने काल तक प्रासुक रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है, इसका विवेचन किया गया है। सामान्यतया यह माना जाता है कि उष्ण किया हुआ प्रासुक जल ग्रीष्म ऋतु में पांच प्रहर तक, शीत ऋतु में चार प्रहर तक और वर्षा ऋतु में तीन प्रहर तक प्रासुक (अचित) रहता है और बाद में सचित्त हो जाता है। यद्यपि चूना आदि डालकर अधिक समय तक उसे प्रासुक रखा जा सकता है।
१३७वें द्वार में पशु-पक्षी आदि तीर्यञ्च-जीवों की मादाओं के सम्बन्ध में विवेचन किया गया है।
१३८वें द्वार में इस अवसर्पिणी काल में घटित हुए इस प्रकार के आश्चयों जैसे महावीर के गर्भ का संहरण, स्त्री-तीर्थकर आदि का वर्णन किया गया है।
___ १३९३ द्वार में सत्य, मृषा, सत्य मृष (मिश्र) और असत्य-अमृषा ऐसी चार प्रकार की भाषाओं का उनके आवान्तर भेदों और उदाहरणों सहित विवेचन किया गया है।
१४०वां द्वार वचन षोड़सक अर्थात् सोलह प्रकार के वचनों का उल्लेख करता है।
१४१वें द्वार में मास पंचक और १४२वें द्वार में वर्ष पंचक का विवेचन है।
१४३वें द्वार में लोक के स्वरूप (आकार-प्रकार) का विवेचन है इसी क्रम में यहाँ लोक पुरुष की भी चर्चा की गयी है।
१४४ से लेकर १४७ तक चार द्वारों में क्रमश: तीन, चार, दस और पन्द्रह प्रकार की संज्ञाओं का विवेचन किया गया है।
१४८वें द्वार में सम्यक्त्व सड़सठ भेदों का विवेचन है, जबकि १४९वें द्वार में सम्यक्त्व के एक-दो आदि विभिन्न भेदों की विस्तार पूर्वक चर्चा की गई है।
१५०वें द्वार के अन्दर पृथ्वीकाय आदि षड् जीवनिकायके कुलों की संख्या का विवेचन है। प्राणियों की प्रजाति को योनि और उनकी उप प्रजातियों को कुल कहते हैं। इन कुलों की संख्या एक करोड़ सत्तानवे लाख पचास हजार मानी गई है।
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