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________________ १०८ (प्रत्यक्षीकरण) सम्बन्धी विभिन्न अनुभूतिपरक अवस्थायें आत्मा की स्वभाव पर्याय हैं। क्योंकि वे आत्मा के स्व-लक्षण उपयोग से फलित होती हैं, जबकि क्रोध आदि कषाय भाव कर्म के निमित्त से या दूसरों के निमित्त से होती हैं, अतः वे विभाव पर्याय हैं। फिर भी इतना निश्चित है कि इन गुणों और पर्यायों का अधिष्ठान या उपादान तो द्रव्य स्वयं ही है । द्रव्य गुण और पर्यायों से अभिन्न है, वे तीनों परस्पर सापेक्ष हैं। आचार्य सिद्धसेन दिवाकर ने सन्मतितर्कप्रकरण में स्पष्ट रूप से कहा है, द्रव्य से रहित गुण और पर्याय की सत्ता नहीं है। साथ ही गुण और पर्याय से रहित द्रव्य की भी सत्ता नहीं है। दव्वं पज्जव विउअं दव्व विउत्ता पज्जवा नत्थि । उप्पादट्टि भंगा हदि दविय लक्खणं एयं ।। सन्मतितर्क १२ अर्थात् द्रव्य, गुण और पर्याय में तदात्म्य है, किन्तु इसका अर्थ यह भी नहीं है कि द्रव्य, गुण और पर्याय की स्वतन्त्र सत्ता नहीं है। यह सत्य है कि अस्तित्त्व की अपेक्षा से उनमें तादात्म्य है किन्तु विचार की अपेक्षा से वे पृथक्-पृथक् हैं। हम उन्हें अलग-अलग कर नहीं सकते किन्तु उन पर अलग-अलग विचार सभव है। बालपना, युवावस्था या बुढ़ापा व्यक्ति से पृथक् अपनी सत्ता नहीं रखते हैं- फिर भी ये तीनों अवस्थाएं एक दूसरे से भिन्न हैं। यही स्थिति द्रव्य, गुण और पर्याय की है। गुण और पर्याय का सहसम्बन्ध : द्रव्य को गुण और पर्यायों का आधार माना गया है। वस्तुतः गुण द्रव्य के स्वभाव या स्व-लक्षण होते हैं। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति ने द्रव्याश्रया निर्गुणागुणाः (५/४०) कहकर यह बताया है कि गुण द्रव्य में रहते हैं, पर वे स्वयं निर्गुण होते हैं। गुण निर्गुण होते हैं यह परिभाषा सामान्यतया आत्म- - विरोधी सी लगती किन्तु इस परिभाषा की मूलभूत दृष्टि यह है कि यदि हम गुण का भी गुण मानेंगे तो फिर अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा । आगमिक दृष्टि से गुण की परिभाषा इस रूप में की गयी है कि गुण द्रव्य का विधान है यानि उसका स्व-लक्षण है जबकि पर्याय द्रव्य विकार है । गुण भी द्रव्य के समान ही अविनाशी है। जिस द्रव्य का जो गुण है वह उसमें सदैव रहता है। दूसरे शब्दों में हम यह कह सकते हैं कि द्रव्य का जो अविनाशी लक्षण है अथवा द्रव्य जिसका परित्याग नहीं कर सकता है वही गुण है। गुण वस्तु की सहभावी अवस्थाओं का सूचक है। फिर भी गुण की ये अवस्थायें अर्थात् गुण-पर्याय बदलती हैं। द्रव्य के समान ही गुणों की पर्याय होती हैं जो गुण को भी परिवर्तनशीलता को सूचित करती हैं। जीव में चेतना की अवस्थाएँ बदलती हैं फिर भी चेतना गुण बना रहता है। Jain Education International - For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229173
Book TitleJain Darshan ki Dravya Gun Paryay ki Avadharna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf
Publication Year2002
Total Pages17
LanguageHindi
ClassificationArticle & Six Substances
File Size492 KB
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