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________________ २६ उसमें हाल की 'गाथासप्तशती' ई० सन् की लगभग प्रारम्भिक शतियों में रचित है और शौरसेनी के किसी भी ग्रन्थ से वह लगभग प्राचीन है। पुनः मैं डॉ० सुदीपजी के निम्न कथन की ओर पाठकों का ध्यान दिलाना चाहूँगा- वे प्राकृतविद्या, जुलाई-सितम्बर १९९६ में लिखते हैं कि दिगम्बरों के ग्रन्थ उस शौरसेनी प्राकृत में हैं, जिससे 'मागधी' आदि प्राकृतों का जन्म हुआ। इस सम्बन्ध में मेरा उनसे निवेदन है कि मागधी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः शौरसेनी' (प्राकृत प्रकाश, ११/२) इस कथन की वे जो व्याख्या कर रहे हैं, वह भ्रान्तिपूर्ण है और वे स्वयं भी शौरसेनी के सम्बन्ध में 'प्रकृतिः संस्कृतम्' ( प्राकृत प्रकाश १२ / २ ) इस सूत्र की व्याख्या में 'प्रकृतिः' का 'जन्मदात्री' ऐसा अर्थ अस्वीकार कर चुके हैं। इसकी विस्तृत समीक्षा हमने अग्रिम पृष्ठों में की है। इसके प्रत्युत्तर में मेरा दूसरा तर्क यह है कि यदि शौरसेनी के ग्रन्थों के आधार पर ही मागधी के प्राकृत आगमों की रचना हुई हो तो उनमें किसी भी शौरसेनी प्राकृत के ग्रन्थ का उल्लेख क्यों नहीं है ? श्वेताम्बर आगमों में वे एक भी सन्दर्भ दिखा दें जिनमें 'भगवती आराधना', 'मूलाचार', 'षट्खण्डागम', 'तिलोयपण्णत्ति', 'प्रवचनसार', 'समयसार', 'नियमसार' आदि का उल्लेख हुआ हो। टीकाओं में भी मलयगिरि (तेरहवीं शती) ने मात्र 'समयपाहुड' का उल्लेख किया है, इसके विपरीत 'मूलाचार', 'भगवती आराधना' और 'षट्खण्डागम' की टीकाओं में एवं 'तत्त्वार्थसूत्र' की 'सर्वार्थसिद्धि', 'राजवार्तिक', 'श्लोकवार्तिक' आदि सभी दिगम्बर टीकाओं में (श्वेताम्बर अर्धमागधी) आगमों एवं नियुक्तियों के उल्लेख मिलते हैं। 'भगवती आराधना' की टीका में तो 'आचाराङ्ग', 'उत्तराध्ययन', 'कल्पसूत्र' तथा 'निशीथसूत्र' से अनेक अवतरण भी दिये गये हैं। 'मूलाचार' में न केवल अर्धमागधी आगमों का उल्लेख है, अपितु उनकी सैकड़ों गाथाएँ भी हैं। 'मूलाचार' में 'आवश्यकनिर्युक्ति', 'आतुरप्रत्याख्यान', 'महाप्रत्याख्यान', 'चन्द्रवेध्यक', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक' आदि की अनेक गाथाएँ अपने शौरसेनी शब्द-रूपों में यथावत् पायी जाती हैं। * दिगम्बर- परम्परा में जो प्रतिकमणसूत्र उपलब्ध है, उसमें 'ज्ञातासूत्र' के उन्हीं १९ अध्ययनों के नाम मिलते हैं, जो वर्तमान में श्वेताम्बर - परम्परा के 'ज्ञाताधर्मकथा' में उपलब्ध हैं। तार्किक दृष्टि से यह स्पष्ट है कि जो ग्रन्थ जिन-जिन ग्रन्थों का उल्लेख करता है, वह उनसे परवर्ती ही होता है, पूर्ववर्ती कदापि नहीं। शौरसेनी - आगम या *. - इस सम्बन्ध में मैंने जो अध्ययन किया है उसके आधार पर यह भी पूर्णतः सम्भावित है कि ऐसे श्वेताम्बर और दिगम्बर रचनाओं की गाथाओं के मूल में एक ही प्राचीन समान आधार रहा होगा और दोनों परम्पराओं में उनका भाषिक स्वरूप अपने-अपने ढंग से बदल गया होगा। प्रो० डॉ० ए०एन० उपाध्ये का भी यही अभिप्राय है। - के० आर० चन्द्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229168
Book TitleJain Agamo ki Mul Bhasha Arddhamagadhi ya Shaurseni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf
Publication Year2002
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size649 KB
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