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________________ २३ अभिलेख कोई भी तो शौरसेनी प्राकृत में नहीं है। इन सभी अभिलेखों की भाषा क्षेत्रीय बोलियों से प्रभावित मागधी ही है। अत: उसे अर्धमागधी तो कहा जा सकता है; किन्तु शौरसेनी कदापि नहीं कहा जा सकता है। अतः प्राकृतों में अर्धमागधी ही प्राचीन है, क्योंकि मथुरा के प्राचीन अभिलेखों में भी नमो अरहंतानं, नमो वधमानस आदि अर्धमागधी शब्द-रूप मिलते हैं। श्वेताम्बर आगमों एवं अभिलेखों में आये "अरहंतानं " पाठ को तो 'प्राकृतविद्या' में खोटे सिक्के की तरह बताया गया है, इसका अर्थ है कि यह पाठ शौरसेनी का नहीं है ( प्राकृतविद्या, अक्टूबर-दिसम्बर, १९९४, पृ० १०-११) अतः शौरसेनी उसके बाद ही विकसित हुई है। शौरसेनी आगम और उनकी प्राचीनता जब हम आगम की बात करते हैं तो हमें यह स्पष्ट रूप से समझ लेना चाहिए कि 'आचाराङ्ग' आदि द्वादशाङ्गी जिन्हें श्वेताम्बर, दिगम्बर और यापनीय परम्परा आगम कहकर उल्लेखित करती हैं, वे सभी मूलतः अर्धमागधी में निबद्ध हुए हैं। चाहे श्वेताम्बर - परम्परा में 'नन्दीसूत्र' में उल्लेखित आगम हों, चाहे 'मूलाचार', 'भगवती आराधना' और उनकी टीकाओं में या 'तत्त्वार्थ' और उसकी दिगम्बर टीकाओं में उल्लेखित आगम हों, अथवा 'अंगपण्णति' एवं 'धवला' के अंग और अंग बाह्य के रूप में उल्लेखित आगम हों, उनमें से एक भी ऐसा नहीं है, जो शौरसेनी प्राकृत में निबद्ध था। हाँ! इतना अवश्य है कि इनमें से कुछ के शौरसेनी प्राकृत से प्रभावित संस्करण माथुरी वाचना के समय लगभग चतुर्थ शती में अस्तित्व में अवश्य आये थे; किन्तु इन्हें शौरसेनी आगम कहना उचित नहीं होगा। वस्तुतः ये 'आचाराङ्ग', 'उत्तराध्ययन', 'दशवैकालिक', 'ऋषिभाषित' आदि श्वेताम्बर - परम्परा में मान्य आगमों केही शौरसेनी संस्करण थे, जो यापनीय-परम्परा में मान्य थे और जिनके भाषिक स्वरूप और कुछ पाठ-भेदों को छोड़कर श्वेताम्बर मान्य आगमों से समरूपता थी। इनके स्वरूप आदि के सम्बन्ध में विस्तृत चर्चा मैंने "जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय" नामक ग्रन्थ के तीसरे अध्याय के प्रारम्भ में की है। इच्छुक पाठक उसे वहाँ देख सकते हैं। वस्तुतः आज जिन्हें हम शौरसेनी आगम के नाम से जानते हैं उनमें मुख्यतः निम्न ग्रन्थ आते हैं अ. यापनीय आगम १. २. ३. ४. कसायपाहुड, लगभग ईसा की चौथी शती, गुणधराचार्य - रचित । षट्खण्डागम, ईसा की पाँचवीं शती का उत्तरार्द्ध, पुष्पदन्त और भूतबलि । भगवती आराधना, ईसा की छठी शती, शिवार्य रचित। मूलाचार, ईसा की छठी शती, वट्टकेर रचित। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229168
Book TitleJain Agamo ki Mul Bhasha Arddhamagadhi ya Shaurseni
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_5_001688.pdf
Publication Year2002
Total Pages27
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size649 KB
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