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________________ ८९ है, न करवाता है । २८ कषाय-जय से जीवनमुक्ति को प्राप्त कर वह निष्काम जीवन जीता है। बौद्धदर्शन और कंषाय-जय- धम्मपद में कषाय शब्द का प्रयोग दो अर्थों में हुआ है। एक तो उसका जैन- परम्परा के समान दूषित चित्तवृत्ति के अर्थ में और दूसरे संन्यस्त जीवन के प्रतीक गेरूए वस्त्रों के अर्थ में। तथागत कहते हैं- 'जो व्यक्ति (रागद्वेषादि) कषायों को छोड़े बिना कषाय वस्त्रों (गेरूए कपड़ों) को अर्थात् संन्यास धारण करता है वह संयम के यथार्थ स्वरूप से पतित व्यक्ति कषाय- वस्त्रों (संन्यास मार्ग ) का अधिकारी नहीं है। लेकिन जिसने कषायों (दूषित चित्तवृत्तियों) को वमित कर दिया (तज दिया) है, वह संयम के यथार्थ स्वरूप से युक्त व्यक्ति काषाय- वस्त्रों (संन्यास मार्ग ) का अधिकारी है'।२९ बौद्ध-विचार में कषाय शब्द के अन्तर्गत कौन-कौन दूषित वृत्तियाँ आती हैं, इसका स्पष्ट उल्लेख हमें नहीं मिलता । क्रोध, मान, माया, लोभ को बौद्ध - विचारणा में दूषित चित्त वृत्ति के रूप में ही माना गया है और नैतिक आदर्श की उपलब्धि के लिए उनके परित्याग का निर्देश है। बुद्ध कहते हैं कि क्रोध को छोड़ दो और अभिमान का त्याग कर दो, समस्त संयोजनों को तोड़ दो, जो पुरुष नाम तथा रूप में आसक्त नहीं होता, लोभ नहीं करता, जो अकिंचन है, उस पर क्लेशों का आक्रमण नहीं होता। जो उठते हुए क्रोध को उसी तरह निग्रहित कर लेता है, जैसे सारथी घोड़े को; वही सच्चा सारधी है (नैतिक जीवन का सच्चा साधक है), शेष सब तो मात्र लगाम पकड़ने वाले हैं। भिक्षुओं ! लोभ, द्वेष और मोह पापचित्त वाले मनुष्य को अपने भीतर ही उत्पन्न होकर नष्ट कर देते हैं जैसे केले के पेड़ को उसी का फल (केला)। मायावी मर कर नरक में उत्पन्न हो दुर्गति को प्राप्त होता है । " सुत्तनिपात में कहा गया है कि जो मनुष्य जाति, धन और गोत्र का अभिमान करता है और अपने बन्धुओंका अपमान करता है, वह उसके पराभव का कारण है । ३२ जो क्रोध करता है, वैरी है तथा जो मायावी है उसे वृषल (नीच) जानो । ३ इस प्रकार बौद्धदर्शन इन अशुभ चित्त वृत्तियों का निषेध कर साधक को इनसे ऊपर उठने का संदेश देता है। ३० गीता और कषाय-निरोध - यद्यपि गीता में कषायों का ऐसा चतुर्विध वर्गीकरण तो नहीं मिलता, तथापि कषायों के रूप में जिन अशुभ मनोवृत्तियों का चित्रण जैनागमों 2 में है, उन सभी अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में प्रयोग विरल ही हुआ हैं। छान्दोग्य उपनिषद् में कषाय शब्द राग-द्वेष के अर्थ में व्यवहृत हुआ है । ३४ महाभारत के शान्तिपर्व में भी कषाय शब्द का प्रयोग अशुभ मनोवृत्तियों के अर्थ में हुआ है। वहाँ कहा गया है कि मनुष्य जीवन की तीन सीढ़ियों अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ एवं वानप्रस्थ आश्रम में कषायों को विजित कर फिर संन्यास का अनुसरण करें। " गीता में कषाय शब्द का प्रयोग नहीं है। फिर भी गीता में कषाय- वृत्तियों का विवेचन है। गीता कहती है कि 'दम्भ, दर्प, मान, क्रोध आदि आसुरी सम्पदा हैं। अहंकार, बल, दर्प (मान), काम (लोभ) और क्रोध Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229161
Book TitleKashaymukti Kil Muktirev
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf
Publication Year2001
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size482 KB
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