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________________ जैन-सत्रों में इन चार प्रमुख कषायों को 'चंडाल चौकड़ी' कहा गया है। इनमें अनन्तानुबन्धी आदि जो विभाग हैं, उनको सदैव ध्यान में रखना चाहिए और हमेशा यह प्रयत्न करना चाहिए कि कषायों में तीव्रता न आये, क्योंकि अनन्तानुबन्धी क्रोध, मान, माया,लोभ के होने पर साधक अनन्तकाल तक संसार परिभ्रमण करता है और सम्यग्दृष्टि नहीं बन पाता है। यह जन्म-मरण के रोग की असाध्यावस्था है। अप्रत्याख्यानी कषाय के होने पर साधक, श्रावक या गृहस्थ साधक के पद से गिर जाता है। यह साधक के आंशिक चारित्र का नाश कर देती है। यह विकारों की दुःसाध्यावस्था है। इसी प्रकार प्रत्याख्यानी कषाय की अवस्था में साधुत्व प्राप्त नहीं होता। इसे विकारों की प्रयत्नसाध्यावस्था कहा जा सकता है। साधक को अपने जीवन में उपर्युक्त तीनों प्रकार के कषायों को स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि इससे उसकी साधना या चारित्र धर्म का नाश हो जाता है। इतना ही नहीं, साधन को अपने अन्दर संज्वलन कषाय को भी स्थान नहीं देना चाहिए, क्योंकि जब तक चित्त में सूक्ष्मतम क्रोध, मान, माया और लोभ रहते हैं, साधक अपने लक्ष्य-निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर सकता। संक्षेप में, अनन्तानुबन्धी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतम अवस्था यथार्थ दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक है। अप्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्रतर अवस्था आत्म-नियन्त्रण में बाधक है। प्रत्याख्यानी चौकड़ी या कषायों की तीव्र अवस्था श्रमण जीवन में घातक है। इसी प्रकार संज्वलन चौकड़ी या अल्प-कषाय पूर्ण निष्काम या वीतराग जीवन की उपलब्धि में बाधक है। इसलिए साधक को सूक्ष्मतम कषायों को भी दूर करने का प्रयत्न करना चाहए, क्योंकि इनके होने पर उसकी साधना में पूर्णता नहीं आ सकती। दशवैकालिकसूत्र में कहा गया है कि आत्म-हित चाहने वाला साधक पाप की वृद्धि करने वाले क्रोध, मान, माया और लोभ- इन चार दोषों को पूर्णतया छोड़ दे।५ नैतिक जीवन की साधना करने वाला इनको क्यों छोड़ दे? इस तर्क के उत्तर में दशवैकालिकसूत्र में इनकी सामाजिक एवं वैयक्तिक सद्गुणों का घात करने वाली प्रकृति का भी विवेचन किया गया है- क्रोध प्रीति का, मान विनय (नम्रता) का, माया मित्रता का और लोभ सद्गुणों का नाश कर देता है। १६ आचार्य हेमचन्द्र कहते हैं कि मान विनय, श्रुत, शील-सदाचार एवं त्रिवर्ग का घातक है। वह विवेकरूपी नेत्रों को नष्ट करके मनुष्य को अन्धा बना देता है। क्रोध जब उत्पन्न होता है तो प्रथम आग की तरह उसी को जलाता है, जिसमें वह उत्पन्न होता है। माया अविद्या और असत्य की जनक है और शीलरूपी वृक्ष को नष्ट करने में कुल्हाड़े के समान तथा अधोगति का कारण है। लोभ समस्त दोषों की उत्पत्ति की खान है, समस्त सद्गुणों को निगल जाने वाला राक्षस है, सारे दुःखों का मूल कारण और धर्म तथा काम-पुरुषार्थ का बाधक है। यहाँ पर विशेष द्रष्टव्य यह भी है कि कषायों में जहाँ क्रोध-मानादि को एक या अधिक सद्गुणों का विनाशक कहा गया है, वहाँ लोभ को सर्व सद्गुणों का विनाशक कहा गया है। लोभ सभी कषायों में निकृष्टतम इसलिए है कि वह रागात्मक है और राग या आसक्ति ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229161
Book TitleKashaymukti Kil Muktirev
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf
Publication Year2001
Total Pages18
LanguageHindi
ClassificationArticle & 0_not_categorized
File Size482 KB
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