SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 5
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ७१ करने का प्रयत्न ही नहीं किया कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना शैली और उसके सूत्रों पर वैशेषिक सूत्र और योगसूत्र का कितना प्रभाव है। प्राकृत आगम साहित्य का एक विरल किन्तु महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है - ऋषिभाषित। इस ग्रन्थ पर सर्वप्रथम शुब्रिंग की और उसके पश्चात् मेरी लगभग सौ पृष्ठों की प्रस्तावना को छोड़कर किसी ने यह प्रयत्न नहीं किया कि इसमें जिन पैंतालीस ऋषियों के उपदेशों का प्रतिपादन है वे मूलत: किस परम्परा के हैं । प्राकृत भाषा में निबद्ध यह रचना जैन आगमिक परम्परा का ग्रन्थ है, किन्तु इसमें जिन ऋषियों के उपदेश संकलित हैं, वे औपनिषदिक, बौद्ध और अन्य स्वतन्त्र श्रमण परम्पराओं के हैं। जैन परम्परा में उनके उपदेशों का संकलन यही सूचित करता है कि भारत की आध्यात्मिक धारा का स्रोत एक ही है। आज ऋषिभाषित और थेर गाथा जैसे ग्रन्थों का अध्ययन अन्य परम्पराओं के सन्दर्भों के बिना सम्भव नहीं है। ऋषिभासित में प्रतिपादित सारिपुत्र या महाकाश्यप के उपदेशों के लिए बौद्ध त्रिपिटक का और उद्दालक या याज्ञवल्क्य के विचारों को समझने के लिए उपनिषदों का अध्ययन अपेक्षित होगा। तात्पर्य यह है कि बिना तुलनात्मक अध्ययन के अथवा सहवर्ती अन्य धाराओं के अध्ययन के जैनविद्या के अध्ययन एवं शोध के क्षेत्र में एक समग्र दृष्टि का विकास सम्भव नहीं हैं। - जैनविद्या के क्षेत्र में तुलनात्मक अध्ययन के साथ प्रत्येक अवधारणा के ऐतिहासिक विकासक्रम को जानना भी आवश्यक है । उदाहरण के रूप में जैन आचार शास्त्र में पञ्चमहाव्रतों का, योगसूत्र में पञ्चयमों का और बौद्ध त्रिपिटक में पञ्चशीलों का उल्लेख मिलता है। यह भी सत्य है जहाँ जैन परम्परा के महाव्रतों और योगसूत्र के पञ्चयमों में नाम और क्रम में एकरूपता है, वहाँ बौद्ध परम्परा में अपरिग्रह के स्थान सुरा-मेरय मद्य निषेध है । अतः तुलनात्मक अध्ययन से यह स्पष्ट हो जायेगा कि बौद्धों ने इस अवधारणा में अपने ढंग से परिवर्तन किया है, क्योंकि महावीर के समान वे अपरिग्रह पर इतना बल नहीं देते थे । पुनः आचारांग में त्रियाम का और भगवतीसूत्र में चातुर्याम का भी उल्लेख है । यह भी ऐतिहासिक सत्य है कि पार्श्वनाथ के चातुर्याम धर्म में महावीर ने ब्रह्मचर्य को जोड़कर उसे पश्चयाम या पञ्चमहाव्रतरूप बनाया । पुनः त्रियाम का उल्लेख उपनिषदों में है, जिसके अन्तर्गत अहिंसा, सत्य और अस्तेय आते हैं । औपनिषदिक ऋषि पत्नी और परिग्रह रखते थे। पार्श्व ने उसमें अपरिग्रह जोड़कर यह माना कि स्त्री भी परिग्रह है अतः परिग्रह के त्याग में स्त्री का त्याग भी समाहित है । किन्तु जैसा कि सूत्रकृतांग में उल्लिखित है जब स्त्री का त्याग करके भी मैथुन से विरत रहना आवश्यक नहीं माना गया तो महावीर ने ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह को अलग अलग करके पञ्चमहाव्रत बनाये! पुनः महावीर ने यम के स्थान पर उन्हें महाव्रत नाम इसलिए दिया कि गृहस्थ के लिये ये ही अणुव्रतरूप घे अणुव्रत और महाव्रत का वर्गीकरण महावीर का अपना था। अत: योगसूत्र में जो महाव्रत शब्द आया है, वह Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229160
Book TitleJain Vidya ke Adhyayan ki Taknik
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_4_001687.pdf
Publication Year2001
Total Pages9
LanguageHindi
ClassificationArticle & Education
File Size363 KB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy