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शताब्दी में पञ्चपदात्मक नमस्कारमन्त्र का और ईसा की दूसरी शताब्दी में उसकी चूलिका का निर्माण हुआ होगा। उसके पूर्व नमस्कारमन्त्र की क्या स्थिति थी? यह विचारणीय है। प्राचीन स्तर के आगमों यथा आचाराङ्ग आदि में 'अरहंत' पद तो प्राप्त होता है, किन्तु उसके साथ 'नमो' पद की कोई योजना नहीं है। आगम में 'नमो' पद पूर्वक 'सिद्ध पद का प्रयोग उत्तराध्ययनसूत्र में मिलता है। उसमें 'सिद्धाणं नमो' ऐसा प्रयोग मिला है। भगवती और कल्पसूत्र में 'नमोत्थुणं अरहंताणं,' ऐसा पद मिलता है। किन्तु 'नमो अरहंताणं, नमो सिद्धाणं' ऐसे दो पद मुझे देखने में नहीं आये।
इसी सन्दर्भ में सर्वप्रथम लगभग ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी का एक अभिलेखीय साक्ष्य प्राप्त होता है जिसमें द्विपदात्मक नमस्कारमन्त्र का निर्देश है। भवनेश्वर (उड़ीसा) के खारवेल के हत्थीगुम्फा अभिलेख (ई०पू० दूसरी शताब्दी) में हमें निम्न दो पद मिलते हैं. १. 'नमो अरहंता,' २. "नमो सव्व सिद्धाणं।'
इस प्रकार द्विपदात्मक नमस्कारमन्त्र का ई० पू० का अभिलेखीय साक्ष्य तो मिला, किन्त किसी साहित्यिक साक्ष्य से इसकी पुष्टि नहीं हो पा रही थी। मात्र इतना ही नहीं, इसमें 'सिद्धाणं' के साथ जो 'सव्व' विशेषण जुड़ा हुआ है, उसकी भी किसी साहित्यिक साक्ष्य से कोई पुष्टि नहीं हो पा रही थी। संयोग से जब मैं अपनी पुस्तक 'जैन धर्म और तान्त्रिक साधना' का 'जैन धर्म और मन्त्र साधना' नामक अध्याय लिख रहा था, तो जैन मन्त्रों के प्रारम्भिक स्रोतों को खोजने हेतु अंगविज्जा का अध्ययन कर रहा था तो मुझे उसमें न केवल द्विपदात्मक नमस्कारमन्त्र प्राप्त हुआ अपितु उसमें 'सब्ब' विशेषण युक्त 'सिद्धाणं' पद भी प्राप्त हुआ। इस प्रकार हमें खारवेल के अभिलेख के द्विपदात्मक नमस्कारमन्त्र का सम्पूर्ण साहित्यिक साक्ष्य अंगविज्जा में प्राप्त हुआ। साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि द्विपदात्मक इस नमस्कारमन्त्र के अभिलेखीय एवं साहित्यिक साक्ष्य समकालिक भी हैं। पुण्यविजय जी म.सा. द्वारा सम्पादित इस अंगविज्जा की 'भूमिका' में डॉ. वासुदेव शरण अग्रवाल ने अंगविज्जा को कुषाणकाल अर्थात् ईसा की प्रथम शती की रचना माना है। खारवेल का अभिलेख इससे लगभग १५० वर्ष पूर्व का होगा। इस प्रकार अंगविज्जा, से खारवेल के अभिलेख से किञ्चित् परवर्ती है। यही कारण है कि अंगविज्जा में नमस्कारमन्त्र के एक पदात्मक, द्विपदात्मक, त्रिपदात्मक एवं पञ्चपदात्मक चारों ही रूप देखने को मिलते हैं। किन्तु अंगविज्जा में हमें नमस्कारमन्त्र की चूलिका (एसो पञ्च नमोक्कारो सबपावप्पणासणो मंगलाणं च सव्वेसिं पढम हवइ मंगलं) का कोई उल्लेख उपलब्ध नहीं होता है। अतः हम कह सकते हैं कि नमस्कारमन्त्र की चूलिका एक परवर्ती रचना है। इसका सर्वप्रथम निर्देश आवश्यक नियुक्ति में उपलब्ध होता है। यदि आवश्यक नियुक्ति को मेरी मान्यता के अनुसार आर्यभद्र की रचना माना
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