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२५.
२१. महावंस (१०.६५; ३३. ४३-७९) के अनुसार श्रीलंका में बौद्धधर्म पहुँचने
के पूर्व जैनधर्म का अस्तित्त्व था। पाण्डुकाभय ने वहाँ जोनिव और गिरि नामक निग्रन्र्थों के लिए चैत्य बनवाये थे। बाद में मट्टगामिणी अभय ने निर्ग्रन्थों का
विनाश कर दिया। 22. T.V.G. Sastri, "An Earlist Jaina Site in the Krishna Valley",
Arhat Vacana, Vol. I (3-4), June-Sept. 89, p. 23-54. २३. हीरालाल जैन, सम्पा०- जैनशिलालेखसंग्रह, भाग-१, माणिकचन्द्र दिगम्बर
जैन ग्रन्थमाला, ग्रन्थांक २८, मुम्बई १९२८ ई., लेखांक १७-१८. २४. महावीर सवितरि परिनिवृते भगवत्परमर्षि गौतम गणधर साक्षाच्छिष्य लोहार्य-जम्बु
विष्णुदेवापराजित-गोवर्द्धन-भद्रबाहु-विशाख-प्रोष्ठिल कृत्तिकार्य-जयनाम सिद्धार्थ धृतिषेणबुद्धिलादि गुरुपरम्परीण वक्र (क) माभ्यागत महापुरुषसंकृत्तिकार्य्यसमवद्योतितान्वय भद्रबाहु स्वामिना उज्जयन्यामष्टांग महानिमित्त तत्त्वज्ञेन त्रैकाल्यदर्शिना निमित्तेन द्वादशसंवत्सर-काल-वैषम्यमुपलभ्य कथिते सर्वस्सङ्घ उत्तरापथाद्दक्षिणापथं प्रस्थितः। -- पार्श्वनाथवसति शिलालेख, शकसंवत् ५२२, जैन शिलालेख संग्रह, भाग-१, लेखांक १. सप्ताश्विवेदसंख्यं, शककालमपास्य चैत्र शुक्लादौ। अर्धास्तमिते भानौ, यवनपुरे सौम्य दिवासाद्ये।। पंचसिद्धान्तिका अन्तिम प्रशस्ति, उद्धृत- जैनधर्म का मौलिक इतिहास,
भाग-२, पृ. ३७२. २६. चंदगुत्ति रायहु विक्खायहु विंदुसारणंदणु संजायहु।
तह पुत्तु विअसोउ हुउ पुण्णउ णउलु णामु सुअ तहु उप्पण्णउ। ...... णामें चंदगुत्ति तहु णंदणु संजायउ सज्जणु आणंदणु।
भद्रबाहु-चाणक्य-चन्द्रगुप्त कथानक, १०-११. २७. तित्थोगालीपइन्नय --- गाथा ७१४-७५२, पइण्णयसुत्ताई, सं.- मुनि
पुण्यविजय जी, प्रकाशक, महावीर विद्यालय, बम्बई, सन् १९८४. २८. (अ) देखें- जैनधर्म का यापनीय सम्प्रदाय, डॉ. सागरमल जैन,
पृ. २२०-२२१. (ब) पेच्छइ परिब्भमन्तो दाहिण देसे सियम्बर पणओ। -- पउमचरियं
(विमलसूरि) प्राकृत टेक्स्ट सोसाइटी, वाराणसी, २२/७८. २९. यापनि (नी) य निर्ग्रन्थकुर्चकानां .....। - जैन शिलालेखसंग्रह, भाग २,
लेख क्रमांक ९९.
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