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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ३८. संवच्छरं साहियं मासं जं ण रिक्कासि वत्थगं भगवं । अचेलए ततो चाई, तं वोसज्ज वत्थमणगारे ।। आचारांग, १/९/१/४ ३९. ( अ ) ण कहेज्जो धम्मकहं वत्थपत्तादिहेदुमिति । -44 सूत्रकृतांग, पुंडरीक अध्ययन, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. ( ब ) णो पाणस्स ( पायस्स ) हेउं धम्ममाइक्खेज्जा । णो वत्थस्स हेडं धम्म माइक्खेज्जा | सूत्रकृताङ्ग, २/१/६८, पृ० ३६६. ४०. ( अ ) कसिणाई वत्थकंबलाई जो भिक्खू पडिग्गहिदि आपज्जदि मासिगं लहुगं । १११ निशीथसूत्र, २ / २३, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. ( ब ) जे भिक्खू कसिणारं वत्थाइं धरेति, धरेतं वा सातिज्जति । निशीथसूत्र, २ / २३, उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. ४१. भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. ४२. भगवती - आराधना में उल्लिखित प्रस्तुत सन्दर्भ वर्तमान आचारांग में अनुपलब्ध है। उसमें मात्र स्थिरांग मुनि के लिये एक वस्त्र और एक पात्र से अधिक रखने की अनुज्ञा नहीं है। सम्भवतः यह परिवर्तन परवर्ती काल में हुआ है। ४३. ( अ ) हिरिहेतुकं व होइ देहदुगुंछंति देहे जुग्गिदगे । धारेज्ज सिया वत्थं परिस्सहाणं च ण विहासीति ।। कल्पसूत्र से उद्धृत भगवती आराधना, विजयोदया टीका, गाथा ४२३, पृ० ३२४. ( ब ) प्रस्तुत सन्दर्भ उपलब्ध बृहत्कल्पसूत्र में प्राप्त नहीं होता है। यद्यपि वस्त्र धारण करने के इन कारणों का उल्लेख स्थानांगसूत्र, स्थान ३ में निम्न रूप में मिलता है - कप्पति णिग्गंथाण वा णिग्गंथीण वा ओ पायाइं धारित वा परिहरित्तए वा, तंजहा - जंगिए - भंगिए, खोमिए । ठाणांग, ३/३४५. Jain Education International ४४. आचारांग, शीलांकवृत्ति, १/७/४, सूत्र, २०९, पृ० २५१. ४५. ( अ ) भगवती आराधना, विजयोदया टीका, पृ० ३२५-३२६. तुलनीय आवश्यकचूर्णि भाग १, पृ० २७६. For Private & Personal Use Only , www.jainelibrary.org
SR No.229144
Book TitleJain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size783 KB
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