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जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न
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उत्तेजित होता हो तो उन्हें सामान्य दशा में तो अपवादलिंग अर्थात् सचेललिंग ही देना होता है, किन्तु ऐसे व्यक्तियों को भी संलेखना के समय एकान्त में उत्सर्गलिंग अर्थात् अचेलकत्व प्रदान किया जा सकता है। किन्तु उसमें सभी अपवादलिंगधारियों को संलेखना के समय अचेललिंग ग्रहण करना आवश्यक नहीं माना गया है। आगे वे स्पष्ट लिखते हैं कि जिनके स्वजन महान सम्पत्तिशाली, लज्जाशील और मिथ्यादृष्टि अर्थात् जैनधर्म को नहीं मानने वाले हों, ऐसे व्यक्तियों के लिये न केवल सामान्य दशा में अपितु संलेखना के समय भी अपवादलिंग अर्थात् सचेलता ही उपयुक्त होता है।.
__इस समग्र चर्चा से स्पष्टतः यह फलित होता है कि यापनीय सम्प्रदाय उन व्यक्तियों को, जो समृद्धिशाली परिवारों से हैं, जो लज्जालु हैं तथा जिनके परिजन मिथ्यादृष्टि हैं अथवा जिनके पुरुषचिह्न अर्थात् लिंग चर्मरहित हैं, अतिदीर्घ हैं, अण्डकोष स्थूल हैं एवं लिंग बार-बार उत्तेजित होता है, को अपवादिक लिंग धारण करने का निर्देश करता है। इस प्रकार वह यह मानता है कि उपर्युक्त विशिष्ट परिस्थितियों में व्यक्ति सचेल लिंग धारण कर सकता है। अतः हम कह सकते हैं कि यापनीय परम्परा यद्यपि अचेलकत्व पर बल देती थी और यह भी मानती थी कि समर्थ साधक को अचेललिंग ही धारण करना चाहिए किन्तु उसके साथ-साथ वह यह मानती थी कि आपवादिक स्थितियों में सचेल लिंग भी धारण किया जा सकता है। यहाँ उसका श्वेताम्बर परम्परा से स्पष्ट भेद यह है कि जहाँ श्वेताम्बर परम्परा जिनकल्प का विच्छेद बताकर अचेललिंग का निषेध कर रही थी, वहाँ यापनीय परम्परा समर्थ साधक के लिये हर युग में अचेलता का समर्थन करती है। जहाँ श्वेताम्बर परम्परा वस्त्र-ग्रहण को सामान्य नियम या उत्सर्ग मार्ग मानने लगी वहाँ यापनीय परम्परा उसे अपवाद मार्ग के रूप में ही स्वीकार करती रही, अत: उसके अनुसार आगमों में जो वस्त्र-पात्र सम्बन्धी निर्देश हैं, वे मात्र आपवादिक स्थितियों के हैं। दुर्भाग्य से मुझे यापनीय ग्रन्थों में इस तथ्य का कहीं स्पष्ट निर्देश नहीं मिला कि आपवादिक लिंग में उन्हें कितने वस्त्र या पात्र रखे जा सकते थे।
___यापनीय ग्रन्थ भगवतीआराधना की टीका में यापनीय आचार्य अपराजित सूरि लिखते हैं कि चेल ( वस्त्र ) का ग्रहण, परिग्रह का उपलक्षण है, अतः समस्त प्रकार के परिग्रह का त्याग ही आचेलक्य है। आचेलक्य के लाभ या समर्थन में आगे वे लिखते हैं -
१. अचेलकत्व के कारण त्याग धर्म ( दस धर्मों में एक धर्म ) में प्रवृत्ति होती है। Jain Education International
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