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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ९१ ( अ ) कुछ एक वस्त्रधारी रहते तो अचेल ही थे, किन्तु अपने पास एक ऊनी वस्त्र रखते थे, जिसका उपयोग नगरादि में प्रवेश के समय लोक-लज्जा के निवारण के लिये और सर्दियों की रात्रियों में शीत-निवारण के लिये करते थे। ये स्थविरकल्पी कहलाते थे। __ ( ब ) कुछ एक वस्त्रधारी मात्र अधोवस्त्र धारण करते थे, जैसे वर्तमान में दिगम्बर परम्परा के ऐलक धारण करते हैं। ऐलक एक चेलक ( वस्त्रधारी ) का ही अपभ्रंश रूप है। इसे आगम में एकशाटक कहा गया है। . ३. दो वस्त्रधारी, जिन्हें सान्तरोत्तर भी कहा गया है, एक अधोवस्त्र व एक उत्तरीय रखते थे जैसे वर्तमान में क्षुल्लक रखते हैं - अधोवस्त्र लोक-लज्जा हेतु और उत्तरीय शीत-निवारण हेतु। ४. तीन वस्त्रधारी अधोवस्त्र और उत्तरीय के साथ-साथ शीत-निवारणार्थ एक ऊनी कम्बल भी रखते होंगे। यह व्यवस्था आज के श्वेताम्बर मूर्तिपूजक साधुओं में है। आचारांग स्पष्ट रूप से यह उल्लेख करता है कि वस्त्रधारी मुनि वस्त्र के जीर्ण होने पर एवं ग्रीष्मकाल के आगमन पर जीर्ण वस्त्रों का त्याग करते हुए अचेलता की दिशा में आगे बढ़े। तीन वस्त्रधारी क्रमश: अपने परिग्रह को कम करते हुए सान्तरोत्तर अथवा एक शाटक अथवा अचेल हो गए। हम देखते हैं कि आचारांग में वर्णित वस्त्र सम्बन्धी यह व्यवस्था अचेलता का अति-आग्रह रखने वाली दिगम्बर परम्परा में भी मुनि, ऐलक और क्षुल्लक के रूप में आज भी प्रचलित है। उसका क्षुल्लक आचारांग का सान्तरोत्तर है और ऐलक एकशाटक तथा मुनि अचेल है। · श्वेताम्बर परम्परा में परवर्ती काल में भी जो वस्त्र-पात्र का विकास हुआ और वस्त्र-ग्रहण को अपरिहार्य माना गया उसके पीछे मूल में परिग्रह या संचय वृत्ति न होकर देशकालगत परिस्थितियाँ, संघीय जीवन की आवश्यकताएँ एवं संयम अर्थात् अहिंसा की परिपालना ही प्रमुख थी। निर्ग्रन्थ संघ में जब अपरिग्रह महावत के स्थान पर अहिंसा के महाव्रत की परिपालना पर अधिक बल दिया गया तो प्रतिलेखन या पिच्छी से लेकर क्रमश: अनेक उपकरण बढ़ गये। श्वेताम्बर परम्परा के मान्य कुछ परवर्ती आगमों में मुनि के जिन चौदह उपकरणों का उल्लेख मिलता है उनमें अधिकांश पात्र-पोछन, पटल आदि के कारण होने वाली जीव हिंसा से बचने के लिये ही है। ओघनियुक्ति (६९१) में स्पष्ट उल्लेख है कि जिन ने षट्काय जीवों के रक्षण के लिये ही पात्र ग्रहण की अनुज्ञा दी है। शारीरिक सुख-सुविधा और प्रदर्शन की दृष्टि से जो वस्त्रादि उपकरणों Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229144
Book TitleJain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size783 KB
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