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________________ जैनधर्म में अचेलकत्व और सचेलकत्व का प्रश्न ८७ महावीर के संघ में आर्यिकाएँ सवस्त्र ही होती थीं। जब एक बार आर्यिकाओं के संदर्भ में विशेष परिस्थिति में वस्त्र ग्रहण की स्वीकृति दी गई तो इसने मुनि-संघ में भी आपवादिक परिस्थिति में जैसे भगन्दर आदि रोग होने पर वस्त्र-ग्रहण का द्वार उद्घाटित कर दिया। सामान्यतया तो वस्त्र परिग्रह ही था किन्तु स्त्रियों के लिये और अपवादमार्ग में मुनियों के लिये उसे संयमोपकरण मान लिया गया। २. पुन: जब महावीर के संघ में युवा दीक्षित होने लगे होंगे तो महावीर को उन्हें भी सवस्त्र रहने की अनुमति देनी पड़ी होगी, क्योंकि उनके जीवन में लिंगोत्थान और वीर्यपात की घटनाएँ सम्भव थीं। ये ऐसी सामान्य मनोदैहिक घटनाएँ हैं जिनसे युवा मुनि का पूर्णत: बच पाना असम्भव है। मनोदैहिक दृष्टि से युवावस्था में चाहे कामवासना पर नियन्त्रण रखा जा सकता हो किन्तु उक्त स्थितियों का पूर्ण निर्मूलन सम्भव नहीं होता है। निर्ग्रन्थ संघ में युवा मुनियों में ये घटनाएँ घटित होती थीं, ऐसे आगमिक उल्लेख हैं। यदि ये घटनाएँ अरण्य में घटित हों, तो उतनी चिन्तनीय नहीं थीं किन्तु भिक्षा, प्रवचन आदि के समय स्त्रियों की उपस्थिति में इन घटनाओं का घटित होना न केवल उस मुनि की चारित्रिक प्रतिष्ठा के लिये घातक था, बल्कि सम्पूर्ण निर्ग्रन्थ मुनि-संघ की प्रतिष्ठा पर एक प्रश्न-चिह्न खड़ा करता था। अत: यह आवश्यक समझा गया कि जब तक वासना पूर्णतः मर न जाय, तब तक ऐसे युवा मुनि के लिये नग्न रहने या जिनकल्प धारण करने की अनुमति न दी जाय। श्वेताम्बर मान्य आगमिक व्याख्याओं में तो यह स्पष्ट निर्देश है कि ३० वर्ष की वय के पूर्व जिनकल्प धारण नहीं किया जा सकता है। सत्य तो यह है कि निर्ग्रन्थ संघ में सचेल और अचेल ऐसे दो वर्ग स्थापित हो जाने पर यह व्यवस्था दी गई कि युवा मुनियों को छेदोपस्थापनीय चारित्र न दिया जाकर मात्र सामायिक चारित्र दिया जाय, क्योंकि जब तक व्यक्ति सम्पूर्ण परिग्रह त्याग करके अचेल नहीं हो जाता, तब तक उसे छेदोपस्थापनीय चारित्र नहीं दिया जा सकता है। ज्ञातव्य है कि महावीर ने ही सर्वप्रथम सामायिक चारित्र एवं छेदोपस्थापनीय चारित्र ( महाव्रतारोपण ) ऐसे दो प्रकार के चारित्रों की व्यवस्था की जो आज भी श्वेताम्बर परम्परा में छोटी दीक्षा और बड़ी दीक्षा के नाम से प्रचलित है। युवा मुनियों के लिये 'क्षुल्लक' शब्द का प्रयोग किया गया और उसके आचार-व्यवहार के हेतु कुछ विशिष्ट नियम बनाये गये, जो आज भी उत्तराध्ययन और दशवैकालिक के क्षुल्लकाध्ययनों में उपस्थित हैं। महावीर ने छेदोपस्थापनीय चारित्र की व्यवस्था उन प्रौढ़ मुनियों के लिये की, जो अपनी वासनाओं पर पूर्ण नियन्त्रण प्राप्त कर चुके थे और अचेल रहने में समर्थ थे। 'छेदोपस्थापना' शब्द का तात्पर्य भी यही है कि पूर्व दीक्षा पर्याय को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229144
Book TitleJain Dharm me Achelkatva aur Sachelkatva ka Prashna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages36
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ritual
File Size783 KB
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