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________________ ५८ जैन, बौद्ध और हिन्दू धर्म का पारस्परिक प्रभाव आदि ब्रह्मा ऋषभदेव ने षट्कर्मों का उपदेश देने के पश्चात् तीन वर्णों ( क्षत्रिय, वैश्य, और शद्र) की सष्टि की। इसी ग्रन्थ में आगे यह भी कहा गया है कि जो क्षत्रिय और वैश्य वर्ण की सेवा करते हैं वे शूद्र है। इनके दो भेद हैं - कारु और अकारु। पुन: कारु के भी दो भेद हैं - स्पृश्य और अस्पृश्य। धोबी, नापित आदि स्पृश्य शूद्र हैं और चाण्डाल आदि जो नगर के बाहर रहते हैं वे अस्पृश्य शूद्र हैं ( आदिपुराण, १६/१८४-१८६ )। शूद्रों के कारु और अकारु तथा स्पृश्य और अस्पृश्य ये भेद सर्वप्रथम केवल पुराणकाल में जिनसेन ने किये हैं। उनके पूर्ववर्ती अन्य किसी जैन आचार्य ने इस प्रकार के भेदों को मान्य नहीं किया है। किन्तु हिन्दू-समाज-व्यवस्था से प्रभावित होने के बाद के जैन आचार्यों ने इसे प्रायः मान्य किया। षट्प्राभृत के टीकाकार श्रुतसागर ने भी इस स्पृश्य-अस्पृश्य की चर्चा की है। यद्यपि पुराणकार ने शूद्रों को एकशाटकव्रत अर्थात क्षुल्लकदीक्षा का अधिकार मान्य किया था किन्तु बाद के दिगम्बर जैन आचार्यों ने उसमें भी कमी कर दी और शूद्र की मुनि-दीक्षा एवं जिनमन्दिर में प्रवेश का भी निषेध कर दिया। श्वेताम्बर परम्परा में स्थानांगसूत्र ( ३/२०२ ) के मूलपाठ में तो केवल रोगी, भयार्त और नपुंसक की मुनि-दीक्षा का निषेध था, किन्तु परवर्ती टीकाकारों ने चाण्डालादि जाति-मुंगित और व्याधादि कर्मजंगति लोगों को दीक्षा देने का निषेध कर दिया। यद्यपि यह सब जैन-धर्म की मूल परम्परा के तो विरुद्ध ही था, फिर भी हिन्दू-परम्परा के प्रभाव से इसे मान्य कर लिया गया। स्थिति यहाँ तक पहुँची कि एक ही जैनधर्म के अनुयायी जातीय भेद के आधार पर दूसरी जाति का छुआ हुआ खाने में, उन्हें साथ बिठाकर भोजन करने में आपत्ति करने लगे। शद्र का जल-त्याग एक आवश्यक कर्त्तव्य हो गया और शूद्रों का जिन-मन्दिर में प्रवेश निषिद्ध कर दिया गया। इस प्रकार जहाँ प्राचीन स्तर में जैन चारों ही वर्गों और सभी जातियों के व्यक्ति जिन-पूजा करने, श्रावक धर्म एवं मुनिधर्म का पालन करने और साधना के सर्वोच्च लक्ष्य निर्वाण को प्राप्त करने के अधिकारी माने गये थे; वहीं सातवींआठवीं सदी में जिनसेन ने सर्वप्रथम शूद्र को मुनि-दीक्षा और मोक्ष-प्राप्ति हेतु अयोग्य माना। श्वेताम्बर आगमों में कहीं शूद्र की दीक्षा का निषेध नहीं है, स्थानांग में मात्र रोगी, भयार्त और नपुंसक की दीक्षा का निषेध है किन्तु आगे चलकर उनमें भी जाति-जंगित जैसे - चाण्डाल आदि और कर्म-जंगित जैसे - कसाई आदि की दीक्षा का निषेध कर दिया गया। किन्तु यह बृहत्तर हिन्दू-परम्परा का प्रभाव ही था जो कि जैनधर्म के मूल सिद्धान्त के विरुद्ध था। जैनों ने इसे केवल अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा को बनाए रखने हेतु मान्य किया क्योकि आगमों में Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229141
Book TitleJain Bauddh aur Hindu Dharm ka Parasparik Prabhav
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_3_001686.pdf
Publication Year1997
Total Pages30
LanguageHindi
ClassificationArticle & Religion
File Size698 KB
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