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102 : श्रमण/अप्रैल-जून/1995
से बना हुआ है। यह मन का भौतिक पक्ष (Physical or structural aspect of mind ) है। साधारण रूप से इसमें शरीरस्थ सभी ज्ञानात्मक एवं संवेदनात्मक अंग आ जाते हैं। मनोवर्गणा के परमाणुओं से निर्मित उस भौतिक रचना तन्त्र में प्रवाहित होने वाली चैतन्यधारा भावमन है। दूसरे शब्दों में, इस रचना तन्त्र को आत्मा से मिली हुई चिन्तन-मनस्प चैतन्य शक्ति ही भाव मन (Psychical aspect of mind ) है।
'यहाँ पर एक विचारणीय प्रश्न यह भी उठता है कि द्रव्यमन और भावमन शरीर के किस भाग में स्थित है। दिगम्बर सम्प्रदाय के ग्रन्थ गोम्मटसार के जीवकाण्ड में द्रव्यमन का स्थान हृदय माना गया है जबकि श्वेताम्बर आगमों में ऐसा कोई निर्देश उपलब्ध नहीं है कि मन शरीर के किस विशेष भाग में स्थित है। पं० सुखलाल जी अपने गवेषणापूर्ण अध्ययन के आधार पर यह मानते हैं कि -- "श्वेताम्बर परम्परा का समग्र स्थूल शरीर ही द्रव्यमन का स्थान इष्ट है।" जहाँ तक भावमन के स्थान का प्रश्न है उसका स्थान आत्मा ही है। क्योंकि आत्म-प्रदेश सम्पूर्ण शरीर में व्याप्त है अतः भावमन का स्थान भी सम्पूर्ण शरीर ही सिद्ध होता है।
यदि हम तुलनात्मक दृष्टि से विचार करें तो बौद्ध-दर्शन में मन को हृदयप्रदेशवर्ती माना गया है। जो दिगम्बर सम्प्रदाय की द्रव्यमन सम्बन्धी मान्यता के निकट आता है। जबकि सांख्य परम्परा श्वेताम्बर सम्प्रदाय के निकट है। पं0 सुखलाल जी लिखते है कि सांख्य आदि दर्शनों की परम्परा के अनुसार मन का स्थान केवल हृदय नहीं माना जा सकता क्योंकि उस परम्परा के अनुसार मन सूक्ष्मलिंग शरीर में, जो अष्टादश तत्त्वों का विशिष्ट निकायरूप है, प्रविष्ट है और सूक्ष्म शरीर का स्थान समस्त स्थूल शरीर ही मानना उचित जान पड़ता है। अतएव उस परम्परा के अनुसार मन का स्थान समग्र स्थूल शरीर ही सिद्ध होता है।
जैन विचारणा मन के आध्यात्मिक और भौतिक दोनों स्वरूपों को स्वीकार करके ही संतोष नहीं मान लेती वरन इन भौतिक और आध्यात्मिक पक्षों के बीच गहन सम्बन्ध को भी स्वीकार कर लेती है। जैन नैतिक विचारणा में बन्धन के लिए अमूर्त चेतन आत्मतत्त्व और जड़ कर्मतत्त्व का जो सम्बन्ध स्वीकार किया गया है उसकी व्याख्या के लिए उसे मन के स्वरूप का यही सिद्धान्त अभिप्रेत हो सकता है। अन्यथा जैन विचारणा की बन्धन और मुक्ति की व्याख्या ही असम्भव होगी। वेदान्तिक अद्वैतवाद, बौद्ध विज्ञानवाद एवं शून्यवाद के दर्शनों में बन्धन का कारण अन्य तत्त्व को नहीं माना जाता । अतः वहाँ सम्बन्ध की समस्या ही नहीं आती। सांख्यदर्शन में आत्मा को कूटस्थ मानने के कारण वहाँ भी पुरुष और प्रकृति के सम्बन्ध की कोई समस्या नहीं रहती। इसलिए वे मन को एकांत जड़ अथवा चेतन मानकर अपना काम चला लेते हैं। लेकिन जड़ और चेतन के मध्य सम्बन्ध मानने के कारण जैन-दर्शन के लिए मन को उभयस्प मानना आवश्यक है। जैन विचारणा में मन अपने उभयात्मक स्वरूप के कारण ही जड़ कर्मवर्गणा के पुद्गल और चेतन आत्म-तत्त्व के मध्य योजक कड़ी बन गया है। मन की शक्ति चेतना में है और उसका कार्य-क्षेत्र भौतिक जगत है। जड़ पक्ष की ओर से वह भौतिक पदार्थों से प्रभावित होता है और अपने चेतन-पक्ष की ओर से आत्मा को प्रभावित करता है। इस प्रकार जैन दार्शनिक मन के द्वारा आत्मतत्त्व और जड़तत्त्व के मध्य अपरोक्ष सम्बन्ध बना
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