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________________ प्रो. सागरमल जैन 207 एकेन्द्रिय अर्थात् पृथ्वी, पानी, अग्नि, वायु, वनस्पति आदि में जीवन की सिद्धि करना था। इसे गोविन्द नामक आचार्य ने बनाया था और उनके नाम के आधार पर ही इसका नामकरण हुआ है। कथानकों के अनुसार ये बौद्ध परम्परा से आकर जैन परम्परा में दीक्षित हुए थे। मेरी दृष्टि में यह नियुक्ति आचारांग के प्रथम अध्ययन और दशवकालिक के चतर्थ षट-जीव निकाय नामक अध्ययन से सम्बन्धित रही होगी और इसका उद्देश्य बौद्धों के विरुद्ध पृथ्वी, पानी आदि में जीवन की सिद्धि करना रहा होगा। यही कारण है इसकी गणना दर्शन प्रभाक्क ग्रन्थ में की गयी है। संज्ञी-श्रुत के सन्दर्भ में इसका उल्लेख भी यही बताता है।12 इसी प्रकार संसक्त नियुक्ति 3 नामक एक और नियुक्ति का उल्लेख मिलता है। इसमें 84 आगमों के सम्बन्ध में उल्लेख है। इसमें मात्र 94 गाथाएं हैं। 84 आगमों का उल्लेख होने से विद्वानों ने इसे पर्याप्त परवर्ती एवं विसंगत रचना माना है। अतः इसे प्राचीन नियुक्ति साहित्य में परिगणित नहीं किया जा सकता है। इस प्रकार वर्तमान नियुक्तियाँ दस नियुक्तियों में समाहित हो जाती है। इनके अतिरिक्त अन्य किसी नियुक्ति नामक ग्रन्थ की जानकारी हमें नहीं है। दस नियुक्तियों का रचना क्रम : यद्यपि दसों नियुक्तियाँ एक ही व्यक्ति की रचनायें हैं। फिर भी इनकी रचना एक क्रम में हुई होगी। आवश्यकनियुक्ति में जिस क्रम से इन दस नियुक्तियों का नामोल्लेख है14 उसी क्रम से उनकी रचना हुई होगी, विद्वानों के इस कथन की पुष्टि निम्न प्रमाणों से होती है -- __ 1. आवश्यकनियुक्ति की रचना सर्वप्रथम हुई है, यह तथ्य स्वतः सिद्ध है, क्योंकि इसी नियुक्ति में सर्वप्रथम दस नियुक्तियों की रचना करने की प्रतिज्ञा की गयी है और उसमें भी आवश्यक का नामोल्लेख सर्वप्रथम हुआ है। पुनः आवश्यकनियुक्ति से निइनववाद से सम्बन्धित सभी गाथाएं (गाथा 778 से 784 तक)16 उत्तराध्ययननियुक्ति में (गाथा 164 से 178 तक)17 में ली गयी है। इससे भी यही सिद्ध होता है कि आवश्यकनियुक्ति के बाद ही उत्तराध्ययननियुक्ति आदि अन्य नियुक्तियों की रचना हुई है। आवश्यकनियुक्ति के बाद सबसे पहले दशवैकालिकनियुक्ति की रचना हुई है और उसके बाद प्रतिज्ञागाथा के क्रमानुसार अन्य नियुक्तियों की रचना की गई। इस कथन की पुष्टि आगे दिये गये उत्तराध्ययननियुक्ति के सन्दर्मों से होती है। 2. उत्तराध्ययननियुक्ति गाथा 29 में 'विनय की व्याख्या करते हुए यह कहा गया है-- 'विणओ पुवुट्ठिा ' अर्थात् विनय के सम्बन्ध में हम पहले कह चुके हैं।18 इसका तात्पर्य यह है कि उत्तराध्ययननियुक्ति की रचना से पूर्व किसी ऐसी नियुक्ति की रचना हो चुकी थी, जिसमें विनय सम्बन्धी विवेचन था। यह बात दशवैकालिक नियुक्ति को देखने से स्पष्ट हो जाती है, क्योंकि दशवैकालिकनियुक्ति में विनय समाधि नामक नवें अध्ययन की नियुक्ति (गाया 309 से 326 तक) में 'विनय शब्द की व्याख्या है।19 इसी प्रकार उत्तराध्ययननियुक्ति (गाथा, 207) में 'कामापुबुद्दिला' कहकर यह सूचित किया गया है कि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229124
Book TitleNiryukti Sahitya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
Publication Year1994
Total Pages31
LanguageHindi
ClassificationArticle & Agam
File Size703 KB
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