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प्रो. सागरमल जैन
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पुराण में मिलती है, जो कि परवर्ती ग्रन्थ है। किन्तु इतना निश्चित है कि श्रीमद्भागवत में ऋषभ का जिस रूप में प्रस्तुतिकरण है, वह उन्हें निवृत्तिप्रधान श्रमण संस्कृति का आदि पुरुष सिद्ध करता है । श्रीमद्भागवत पुराण के अतिरिक्त लिंगपुराण, शिवपुराण, आग्नेयपुराण, ब्रह्मांडपुराण, विष्णुपुराण, कूर्मपुराण, वराहपुराण और स्कन्ध पुराण में भी ऋषभ का उल्लेख एक धर्म प्रवर्तक के रूप में हुआ है12 1 यद्यपि प्रस्तुत निबन्ध में हम ऋग्वेद में उपलब्ध वृषभ वाची ऋचाओं की ही चर्चा तक अपने को सीमित करेंगे।
ऋग्वेद में 'वृषभ' शब्द का प्रयोग किन-किन सन्दर्भो में हुआ है यह अभी भी एक गहन शोध का विषय है, जहाँ एक ओर अधिकांश वैदिक विद्वान व भाष्यकार ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ ( अपम) शब्द का अर्थ बेल13, बलवान14, उत्तम, श्रेष्ठ15 वर्षा करने वाला16 कामनाओं की पूर्ति करने वाला / आदि करते हैं, वहीं जैन विद्वान उसे अपने प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव का वाची मानते है। जैन विद्वानों ने अपभदेव की चर्चा के सन्दर्भ में ऋग्वेद, यजुर्वेद, अथर्ववेद आदि की अनेक ऋचाएँ प्रस्तुत भी की है और उनका जैन संस्कृति अनुसारी अर्थ करने का भी प्रयत्न किया है। प्रस्तुत निबन्ध में मैने भी एक ऐसा ही प्रयत्न किया है। किन्तु ऐसा दावा मैं नहीं करता हूँ कि यही एक मात्र विकल्प है। मेरा कथ्य मात्र यह है कि उन ऋचाओं के अनेक सम्भावित अर्थों में यह भी एक अर्थ हो सकता है, इससे अधिक सुनिश्चित रूप में कुछ नहीं कहा जा सकता है। ऋग्वेद में प्रयुक्त वृषभ शब्द के अर्थ के सन्दर्भ में हमें पर्याप्त सर्तकता एवं सावधानी बरतनी होगी, क्योंकि जहाँ तक वैदिक ऋचाओं का प्रश्न है उनका अर्थ करना एक कठिन कार्य है। अधिक क्या कहें सायण जैसे भाष्यकारों ने भी ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 106 वें सूक्त के ग्यारह मन्त्रों की व्याख्या करने में असमर्थता प्रकट की है। मात्र इतना ही नहीं कुछ अन्य मंत्रों के सम्बन्ध में स्पष्ट लिखा है कि इन मंत्रों से कुछ भी अर्थ बोध नहीं होता है। कठिनाई यह है कि सायण एवं महिधर के भाष्यों और ऋग्वेद के रचना काल में पर्याप्त अन्तर है। जो ग्रन्थ ईसा से 1500 वर्ष पूर्व कभी बना हो, उसका ईसा की 15 वीं शती में अर्थ करना कठिन कार्य है क्योंकि इसमें न केवल भाषा की कठिनाई होती है, अपितु शब्दों के रुढ़ अर्थ भी पर्याप्त रूप से बदल चुके होते हैं। वस्तुतः वैदिक ऋचाओं को उनके भौगोलिक व सामाजिक परिप्रेक्ष्य में समझे बिना उनका जो अर्थ किया जाता है, वह ऋचाओं में प्रकट मूल भावों के कितना निकट होगा, यह कहना कठिन है। स्कन्दस्वामी, सायण एवं महिधर के बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने वैदिक मंत्रों की अपनी दृष्टि से व्याख्या करने का प्रयत्न किया है। यदि हम सायण और दयानन्द की व्याख्याओं को देखें, तो यह स्पष्ट होता है कि सायण एवं दयानन्द की व्याख्याओं में बहुत अधिक अन्तर है। ऋग्वेद में जिन-जिन ऋचाओं में वृषभ शब्द आया है, वे सभी ऋचाएँ ऐसी हैं कि उन्हें अनेक दृष्टियों से व्याख्यायित किया जा सकता है।
मृन समग्या तो यह है कि वैदिक ऋचाओं का शाब्दिक अर्थ ग्रहण करें या लाक्षणिक अर्थ। जहाँ तक वृषभ सम्बन्धी ऋचाओं के अर्थ का प्रश्न है मैं इस निष्कर्ष पर पहुंचा हूं कि उनका शब्दानुसारी अर्थ करने पर न तो जैन मन्तव्य की पुष्टि होती है और न आर्यसमाज के मंतव्यों की पुष्टि होगी, न ही उनसे किसी विशिष्ट दार्शनिक चिन्तन का अवबोध होता है। यद्यपि वैदिक
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