________________
प्रो. सागरमल जैन
166
सकती है, जब हम अपने विकारों और वासनाओं को देखें, क्योंकि जब तक चित्त में विकारों, वासनाओं और उनके कारणों के प्रति सजगता नहीं आती तब तक चरित्र शुद्धि की प्रक्रिया प्रारम्भ ही नहीं हो सकती। आचारांग में ही कहा गया है कि जो मन का ज्ञाता होता है, वही निर्गन्थ ( विकार-मुक्त ) है।
जैन आचार्यों की दृष्टि में उस शिक्षा या ज्ञान का कोई अर्थ नहीं है जो चारित्र शुद्धि या आचार शुद्धि की दिशा में गतिशील न करता हो। इसीलिए सूत्रकृतांग में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि "विज्जाचरण पमोक्खं"६ अर्थात् विद्या और आचरण से ही विमुक्ति की प्राप्ति होती है। उत्तराध्ययनसूत्र में शिक्षा के प्रयोजन को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि श्रुत की अराधना से जीव अज्ञान का क्ष्य करता है और संक्लेश को प्राप्त नहीं होता है। इसे और स्पष्ट करते हुए इसी ग्रन्थ में पुनः कहा गया है कि जिस प्रकार धागे से युक्त सुई गिर जाने पर भी विनष्ट नहीं होती है अर्थात् खोजी जा सकती है, उसी प्रकार श्रुत सम्पन्न जीव संसार में विनष्ट नहीं होता। इसी ग्रन्थ में अन्यत्र यह भी कहा गया है कि ज्ञान, अज्ञान और मोह का विनाश करके सर्व विषयों को प्रकाशित करता है। यह स्पष्ट है कि ज्ञान साधना का प्रयोजन अज्ञान के साथ-साथ मोह को भी समाप्त करना है। जैन आचार्यों की दृष्टि में अज्ञान और मोह में अन्तर है। मोह अनात्म विषयों के प्रति आत्म बुद्धि है, वह राग या आसक्ति का उद्भावक है उसी से क्रोध, मान, माया और लोभ इन चारों कषायों का जन्म होता है। अतः उत्तराध्ययन के अनुसार जो व्यक्ति की क्रोध, मान, माया आदि की दूषित चित्त वृत्तियों पर अंकुश लगाये, वही सच्ची शिक्षा है। केवल वस्तुओं के सन्दर्भ में जानकारी प्राप्त कर लेना शिक्षा का प्रयोजन नहीं है। उसका प्रयोजन तो व्यक्ति को वासनाओं और विकारों से मुक्त कराना है। शिक्षा व्यक्तित्व या चरित्र का उदात्तीकरण है। जब तक शिक्षा को केवल जानकारियों तक सीमित रखा जायेगा तब तक वह व्यक्तित्व की निर्माता नहीं बन सकेगी। दशवैकालिकसूत्र में शिक्षा के चार उद्देश्यों को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि -- 1. मुझे श्रुत ज्ञान ( आगम ज्ञान ) प्राप्त होगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। 2. मैं एकाग्रचित्त होऊँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिए। 3. मैं अपने आप को धर्म में स्थापित काँगा, इसलिए अध्ययन करना चाहिये। 4. मैं स्वयं धर्म में स्थित होकर दूसरों को धर्म में स्थित करूँगा, इसलिए अध्ययन करना
चाहिये।
इस प्रकार दशवकालिक के अनुसार अध्ययन का प्रयोजन ज्ञान प्राप्ति के साथ-साथ चित्त की एकाग्रता तथा धर्म (सदाचार ) में स्वयं स्थित होना तथा दूसरों को स्थित करना माना गया है। जैन आचार्यों की दृष्टि में जो शिक्षा चरित्र शुद्धि में सहायक नहीं होती, उसका कोई अर्थ नहीं है। चंद्रवेध्यक नामक प्रकीर्णक में ज्ञान और सदाचार में तदात्म्य स्थापित करते हुए कहा गया है कि जो विनय है, वही ज्ञान है और जो ज्ञान है उसे ही विनय कहा जाता है।१२ श्रुतज्ञान में कुशल हेतु और कारण का जानकार व्यक्ति भी यदि अविनीत और अहंकारी है तो वह ज्ञानियों द्वारा प्रशंसनीय नहीं है। जो अल्पश्रुत होकर भी विनीत है वही कर्म का क्षय कर
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org