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प्रो. सागरमल जैन
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है वस्तुतः गुण ही कल्याण कारक होते हैं। जाति से कोई व्यक्ति चाहे चाण्डाल कुल में ही उत्पन्न क्यों न हो, व्रत में स्थित होने पर ऐसे चाण्डाल को भी तीर्थंकरों ने ब्राह्मण ही कहा है। 17 अतः ब्राह्मणत्व जन्म पर नहीं कर्म / सदाचार पर आधारित है।
जैन मुनि चौथमल जी निर्ग्रन्थ प्रवचन भाष्य 17 में लिखते हैं कि एक व्यक्ति दुःशील, अज्ञानी व प्रकृति से तमोगुण होने पर भी अमुक वर्ण में जन्म के कारण समाज में ऊँचा व आदरणीय समझा जाय व दूसरा व्यक्ति सुशील, ज्ञानी व सतो गुणी होने पर भी केवल जन्म के कारण नीच व तिरस्कृत समझा जाय, यह व्यवस्था समाज घातक है और मनुष्य की गरिमा व विवेकशीलता पर प्रश्न चिन्ह लगाती है। इतना ही नहीं ऐसा मानने से न केवल समाज के बहुसंख्यक भाग का अपमान होता है, प्रत्युत सदाचार व सद्गुण का भी अपमान होता है। इस व्यवस्था को अंगीकार करने से दुराचारी, सदाचारी से ऊपर उठ जाता है। अज्ञान - ज्ञान पर विजयी होता है तथा तमोगुण सतोगुण के सामने आदरास्पद बन जाता है। यह ऐसी स्थति है जो गुणग्राहक विवेकीजनों को सह्य नहीं हो सकती है।18 वास्तविकता तो यह है कि किसी जाति विशेष में जन्म ग्रहण करने का महत्त्व नहीं है, महत्त्व है व्यक्ति के नैतिक सदाचरण और वासनाओं पर संयम का । जैन विचारणा यह तो स्वीकार करती हैं कि लोक व्यवहार या आजीविका हेतु प्रत्येक व्यक्ति को रुचि व योग्यता के आधार पर किसी न किसी कार्य का चयन तो करना होगा। यह भी ठीक है कि विभिन्न प्रकार के व्यवसायों या कार्यों के आधार पर सामाजिक वर्गीकरण भी होगा। इस व्यवसायिक या सामाजिक व्यवस्था के क्षेत्र में होने वाले वर्गीकरण में न किसी को श्रेष्ठ, न किसी को हीन कहा जा सकता है। जैनाचार्यों के अनुसार मनुष्य या प्राणीवर्ग की सेवा का कोई भी कार्य हीन नहीं है। यहाँ तक मल-मूत्र की सफाई करने वाला कहीं अधिक श्रेष्ठ है। जैन परम्परा में नन्दिषेणमुनि के सेवाभाव की गौरव गाथा लोकविश्रुत है। जैन परम्परा में किसी व्यवसाय या कर्म को तभी हीन माना गया है, जब वह व्यवसाय या कर्म - हिंसक या क्रूरतापूर्ण कार्यों से युक्त हो । जैनाचार्यों ने जिन जातियों या व्यवसायों को हीन कहा है वे हैं। शिकारी, बधिक, चिडीमार, मच्छीमार आदि । किसी व्यक्ति की श्रेष्ठता का आधार आजीविका हेतु चुना गया व्यवसाय न होकर उसका आध्यात्मिक विकास या सद्गुणों का विकास है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा है कि 'साक्षात तप (साधना) का ही महत्त्व दिखायी देता है, जाति का कुछ भी नहीं । चाण्डाल - पुत्र हरकेशी मुनि को देखो जिनकी प्रभावशाली ऋद्धि हैं। मानवीय समता जैनधर्म का मुख्य आधार है। उसमें हरकेशीबल जैसे चाण्डाल, अर्जुनमाली जैसे मालाकार, पूनिया जैसे धूनिया और शकडाल पुत्र जैसे कुम्भकार का भी वही स्थान है, जो स्थान उसमें इन्द्रभूति जैसे वेदपाठी ब्राह्मण पुत्र, दशार्णभद्र एवं श्रेणिक जैसे क्षत्रिय नरेश, धन्ना व शालिभद्र जैसे समृद्ध श्रेष्ठी रत्नों का है।
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आत्मदर्शी साधक जैसे पुण्यवान व्यक्ति को धर्म उपदेश करता है, वैसे ही तुच्छ ( विपन्न दरिद्र) को भी धर्म उपदेश करता है। 20 सन्मार्ग की साधना में सभी मानवों को समान अधिकार प्राप्त है । धनी - निर्धन, राजा प्रजा और ब्राह्मण-शूद्र का भेद जैन धर्म को मान्य नहीं है।
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