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________________ 2. निहूनव 3. 4. 5. 6. उसका अपलाप करना । -- ज्ञानी का उपकार स्वीकार न करना अथवा किसी विषय को जानते हुए भी अन्तराय ज्ञान की प्राप्ति में बाधक बनना, ज्ञानी एवं ज्ञान के साधन पुस्तकादि को नष्ट करना । मात्सर्य विद्वानों के प्रति देश- बुद्धि रखना, ज्ञान के साधन पुस्तक आदि में अरुचि रखना । —— 117 असादना ज्ञान एवं ज्ञानी पुरुषों के कथनों को स्वीकार नही करना, उनका समुचित विनय नहीं करना । -- जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण उपघात विद्वानों के साथ मिथ्याग्रह युक्त विसंवाद करना अथवा स्वार्थवश सत्य को असत्य सिद्ध करने का प्रयत्न करना । उपर्युक्त छः प्रकार का अनैतिक आचरण व्यक्ति की ज्ञानशक्ति के कुंठित होने का कारण है I ज्ञानावरणीय कर्म का विपाक विपाक की दृष्टि से ज्ञानावरणीय कर्म के कारण पाँच रूपों में आत्मा की ज्ञान - शक्ति का आवरण होता है - (1) मतिज्ञानावरण- ऐन्द्रिक एवं मानसिक ज्ञान-क्षमता का अभाव, (2) श्रुतज्ञानावरण बौद्धिक अथवा आगमज्ञान की अनुपलब्धि, (3) अवधि ज्ञानावरण अतीन्द्रिय ज्ञान - क्षमता का अभाव, ( 4 ) मनः पर्याय ज्ञानावरण दूसरे की मानसिक अवस्थाओं का ज्ञान प्राप्त कर लेने की शक्ति का अभाव, ( 5 ) केवलज्ञानावरण • पूर्णज्ञान प्राप्त करने की क्षमता का अभाव । -- 44 Jain Education International -- कहीं-कहीं विपाक की दृष्टि से इसके 10 भेद भी बताये गये हैं-- 1. सुनने की शक्ति का अभाव, 2. सुनने से प्राप्त होने वाले ज्ञान की अनुपलब्धि, 3. दृष्टि शक्ति का अभाव, 4. दृश्यज्ञान की अनुपलब्धि, 5. गंधग्रहण करने की शक्ति का अभाव, 6. गन्ध सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, 7. स्वाद ग्रहण करने की शक्ति का अभाव, 8 स्वाद सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि, 9. स्पर्श- क्षमता का अभाव और 10. स्पर्श सम्बन्धी ज्ञान की अनुपलब्धि । 2. दर्शनावरणीय कर्म जिस प्रकार द्वारपाल राजा के दर्शन में बाधक होता है, उसी प्रकार जो कर्मवर्गणाएँ आत्मा की दर्शन - शक्ति में बाधक होती हैं, वे दर्शनावरणीय कर्म कहलाती हैं। ज्ञान से पहले होने वाला वस्तु तत्त्व का निर्विशेष (निर्विकल्प ) बोध, जिसमें सत्ता के अतिरिक्त किसी विशेष गुण धर्म की प्राप्ति नहीं होती, दर्शन कहलाता है। दर्शनावरणीय कर्म आत्मा के दर्शन - गुण को आवृत्त करता है। -- दर्शनावरणीय कर्म के बन्ध के कारण ज्ञानावरणीय कर्म के समान ही छ: प्रकार के अशुभ आचरण के द्वारा दर्शनावरणीय कर्म का बन्ध होता है (1) सम्यक् दृष्टि की निन्दा (छिद्रान्वेषण) करना अथवा उसके प्रति अकृतज्ञ होना, ( 2 ) मिथ्यात्व या असत् मान्यताओं का प्रतिपादन करना, ( 3 ) शुद्ध दृष्टिकोण की उपलब्धि में बाधक बनना, ( 4 ) सम्यक्दृष्टि का 11 -- For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229116
Book TitleJain Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
Publication Year1994
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size803 KB
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