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________________ प्रो. सागरमल जैन 112 रहता है, नैतिक पूर्णता नहीं आती। अशुभ पर पूर्ण विजय के साथ ही व्यक्ति शुभ ( पुण्य ) से भी ऊपर उठकर शुद्ध दशा में स्थित हो जाता है। ऋषिभाषित सूत्र में ऋषि कहता है कि पूर्वकृत पुण्य और पाप संसार संतति के मूल है। आचार्य कुन्दकुन्द पुण्य-पाप दोनों को बन्धन का कारण कहकर दोनों के बन्धकत्व का अन्तर भी स्पष्ट कर देते हैं। समयसार में वे कहते हैं कि-- अशुभ कर्म पाप (कुशील) और शुभ कर्म पुण्य (सुशील) कहे जाते हैं, फिर भी पुण्य कर्म एवं पाप कर्म दोनों ही संसार (बन्धन ) का कारण है जिस प्रकार स्वर्ण की बेड़ी भी लौह-बेड़ी के समान ही व्यक्ति को बन्धन में रखती है, उसी प्रकार जीवकृत सभी शुभाशुभ कर्म भी बन्धन के कारण हैं।44 फिर भी आचार्य पुण्य को स्वर्ण-बेड़ी कहकर उसकी पाप से किंचित श्रेष्ठता सिद्ध कर देते हैं। आचार्य अमृतचन्द्र का कहना है कि पारमार्थिक दृष्टि से पुण्य और पाप दोनों में भेद नहीं किया जा सकता, क्योंकि अन्ततोगत्त्वा दोनों ही बन्धन हैं। यही बात पं. जयचन्द्रजी भी कहते हैं -- पुण्य पाप दोऊ करम, बन्धरूप दुई मानि। शुद्ध आत्मा जिन लयो, नमूं चरन हित जानि।।१० जैनाचार्यों ने पुण्य को निर्वाण की दृष्टि से हेय मानते हुए भी उसे निर्वाण का सहायक तत्त्व स्वीकार किया है। निर्वाण प्राप्त करने के लिए अन्ततोगत्वा पुण्य को त्यागना ही होता है, फिर भी वह निर्वाण में ठीक उसी प्रकार सहायक हैं जैसे साबुन वस्त्र के मैल को साफ करने में सहायक है फिर भी उसे अलग करना होता है, वैसे ही निर्वाण या शुद्धात्म-दशा में पुण्य का होना भी अनावश्यक है, उसे भी छोड़ना होता है। जिस प्रकार साबुन मल को दूर करता है और मैल छूटने पर स्वयं अलग हो जाता है, वैसे ही पुण्य भी पापरूप मल को अलग करने में सहायक होता है। अतः व्यक्ति जब अशुभ (पाप) कर्म से ऊपर उठ जाता है, तब उसका शुभ कर्म भी शुद्ध कर्म बन जाता है। देव पर पूर्ण विजय पा जाने पर राग भी नहीं रहता है, अतः राग-द्वेष के अभाव में उससे जो कर्म निस्सृत होते है, वे शुद्ध (ईर्यापथिक) होते है। जैनाघारदर्शन में राग-दो से रहित होकर किया गया शुद्ध कार्य ही मोक्ष या निर्वाण का कारण माना गया है और आसक्तिपूर्वक किया गया शुभ कार्य भी बन्धन का कारण माना गया है। यहाँ पर गीता का अनासक्त कर्म-योग जैन दर्शन के अत्यन्त समीप आ जाता है। जैन दर्शन के अनुसार आत्मा का लक्ष्य अशुभ कर्म से शुभ कर्म की ओर और शुभकर्म से शुद्धकर्म (वीतराग दशा) की प्राप्ति है। आत्मा का शुद्धोपयोग ही जैन धर्म का अन्तिम साध्य है। शुद्ध कर्म (अकर्म) शुद्ध कर्म वह जीवन-व्यवहार है, जिसमें क्रियाएँ राग-द्वेष से रहित मात्र कर्तव्यबुद्धि से सम्पादित होती है तथा जो आत्मा को बन्धन में नहीं डालतीं। अबन्धक कर्म ही शुद्धकर्म हैं। जैन आचारदर्शन इस प्रश्न पर गहराई से विचार करती हैं कि आचरण (क्रिया ) एवं बन्धन में क्या सम्बन्ध है ? क्या 'कर्मणा बध्यते जन्तुः' की उक्ति सर्वाशतः सत्य है ? एक तो कर्म या क्रिया के सभी स्प बन्धन की दृष्टि से समान नहीं है फिर यह भी सम्भव है कि आचरण एवं क्रिया के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229116
Book TitleJain Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
Publication Year1994
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size803 KB
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