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________________ 1(19 जैन कर्मसिद्धान्त : एक विश्लेषण आधार माना गया है। मुनि सुशीलकुमारजी जैनधर्म पृ.१६० पर लिखते हैं, "शुभ-अशुभ कर्म के बन्ध का मुख्य आधार मनोवृत्तियां ही है। एक डॉक्टर किसी को पीड़ा पहुंचाने के लिए उसका व्रण चीरता है। उससे चाहे रोगी को लाभ ही हो जाये परन्तु डॉक्टर तो पाप-कर्म के बन्ध का ही भागी होगा। इसके विपरीत वही डॉक्टर करुणा अपनी शुभ-भावना के कारण पुण्य का बन्ध करता है।" पंडित सुखलालजी भी यही कहते हैं, पुण्य-बन्ध और पाप-बन्ध की कसौटी केवल ऊपरी किया नहीं है, किन्तु उसकी यथार्थ कसौटी कर्ता का आशय ही है ( दर्शन और चिन्तन खण्ड २. पृ. २२६)। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि जैन धर्म में भी कर्मों की शुभाशुभता के निर्णय का आधार मनोवृत्तियां ही है, फिर भी उसमें कर्म का बाहय-स्वरूप उपेक्षित नहीं है। निश्चयदृष्टि से तो मनोवृत्तियां ही कर्मों की शुभाशुभता की निर्णयक हैं, फिर भी व्यवहारदृष्टि से कर्म का बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता का निश्चय करता है। सूत्रकृतांग (२/६) में आद्रककुमार बौद्धों की एकांगी धारणा का निरसन करते हुए कहते हैं कि जो मांस खाता हो -- चाहे न जानते हुए भी खाता हो -- तो भी उसको पाप लगता ही है। हम जानकर नहीं खाते, इसलिए दोष (पाप) नहीं लगता, ऐसा कहना असत्य नहीं तो क्या है ? इससे स्पष्ट है कि जैन दृष्टि में मनोवृत्ति के साथ ही कर्मों का बाह्य-स्वरूप भी शुभाशुभता की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। वास्तव में सामाजिक दृष्टि या लोक-व्यवहार में तो यही प्रमुख निर्णायक होता है। सामाजिक न्याय में तो कर्म का बाह्य स्वरूप ही उसकी शुभाशुभता का निश्चय करता है, क्योंकि आन्तरिक वृत्ति को व्यक्ति स्वयं जान सकता है, दूसरा नहीं। जैन दृष्टि एकांगी नहीं है, वह समन्वयवादी और सापेक्षवादी है। वह व्यक्ति-सापेक्ष होकर मनोवृत्ति को कर्मों की शुभाशुभता का निर्णायक मानती है और समाज-सापेक्ष होकर कर्मों के बाहय स्वरूप पर उनकी शुभाशुभता का निश्चय करती है। उसमें द्रव्य (बाह्य ) और भाव (आन्तरिक ) दोनों का मूल्य है। योग (बाह्य क्रिया ) और भाव (मनोवृत्ति) दोनों ही बन्धन के कारण माने गये हैं, यद्यपि उसमें मनोवृत्ति शुभ हो और क्रिया अशुभ हो, यह सम्भव नहीं। मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में शुभ भाव हो तो पापाचरण सम्भव नहीं है। वह एक समालोचक दृष्टि से कहती है कि मन में सत्य को समझते हुए भी बाहर से दूसरी बातें (अशुभाचरण) करना क्या संयमी पुरुषों का लक्षण है ? उसकी दृष्टि में सिद्धान्त और व्यवहार में अन्तर आत्मप्रवंचना है। मानसिक हेतु पर ही जोर देने वाली धारणा का निरसन करते हुए सूत्रकृतांग (१/१/२४-२८) में कहा गया है, कर्म-बन्धन का सत्य ज्ञान नहीं बताने वाले इस वाद को मानने वाले कितने ही लोग संसार में फंसते रहते हैं कि पाप लगने के तीन स्थान है-- स्वयं करने से, दूसरे से कराने से, दूसरों के कार्य का अनुमोदन करने से। परन्तु यदि हृदय पाप-मुक्त हो तो इन तीनों के करने पर भी निर्वाण अवश्य मिले। यह वाद अज्ञान है, मन से पाप को पाप समझते हुए जो दोष करता है, उसे निर्दोष नहीं माना जा सकता, क्योंकि वह संयम ( वासना-निग्रह ) में शिथिल है। परन्तु भोगासक्त लोग उक्त बातें मानकर पाप में पड़े हैं। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229116
Book TitleJain Karm Siddhant
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherZ_Sagar_Jain_Vidya_Bharti_Part_1_001684.pdf
Publication Year1994
Total Pages35
LanguageHindi
ClassificationArticle & Karma
File Size803 KB
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