________________
Nirgrantha
कमलेश कुमार जैन
२९०
प्रमाणसंग्रह में ९ प्रस्ताव हैं और कुल ८७२ कारिकाएँ हैं। स्वयं अकलंकदेव ने इन कारिकाओं पर एक पूरक वृत्ति भी लिखी है । इस वृत्ति को विवृति कहा गया है ।
प्रमाणसंग्रह की स्वोपज्ञ विवृति में मात्र तीन उद्धरण मिलते हैं। कारिका १९ की विवृति में "अयुक्तम्" करके "नाऽप्रत्यक्षमनुमानव्यतिरिक्तं मानम्"९६ यह वाक्य उद्धृत किया है। यही वाक्य अकलंक ने अपने एक अन्य ग्रन्थ लघीयस्त्रय की कारिका १२ की विवृति में "तन्नाप्रत्यक्षमनुमानव्यतिरिक्तं प्रमाणम्" इत्ययुक्तम्" करके उद्धृत किया है। यहाँ पर "मानम्" के स्थान पर "प्रमाणम्" पाठ मिलता है ।
यह किसी बौद्धाचार्य का कथन है। इसका मूल निर्देशस्थल प्राप्त नहीं हो सका है।
कारिका संख्या ५७ की विवृति में "तथा परप्रसिद्धप्रमाणेन" करके "नाप्रत्यक्षं प्रमाणं न परलोकादिक प्रमेयम् अननुमानमनागमं च"९८ वाक्य उद्धृत किया गया है। यह भी किसी बौद्ध दार्शनिक का कथन है। इसका निर्देशस्थल अभी ज्ञात नहीं हो सका है।
कारिका ६४ की विवृति में अकलंक ने निम्न वाक्य उद्धृत किया है।९ - "क्षीणावरणः समधिगतलक्षणोऽपि सन् विचित्राभिसन्धिः अन्यथा देशयेत्" । इसका निर्देशस्थल भी अभी प्राप्त नहीं हो सका है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि अकलंककृत न्यायविनिश्चय, सवृत्तिसिद्धिविनिश्चय एवं सविवृति प्रमाणसंग्रह में तत्त्वार्थसूत्र, त्रिलक्षणकदर्शन, वादन्याय, आप्तमीमांसा बृहदारण्यकोपनिषद्, प्रमाणवार्तिक, सन्तानान्तरसिद्धि, हेतुबिन्दु, प्रमाणविनिश्चय, आचार्य दिग्नाग, न्यायावतार, प्रमाणवार्तिक स्ववृत्ति, न्यायसूत्र, सांख्यकारिका माठरवृत्ति, प्रमाणवार्तिक मनोरथनन्दिनीटीका तथा जैनेन्द्र व्याकरण आदि से वाक्य, वाक्यांश या कारिकाएँ उद्धृत की गयी हैं या सम्मिलित की गयी हैं।
अकलंकदेव एक प्रौढ विद्वान् होने के साथ-साथ, प्रखर दार्शनिक हैं, इसलिए उनके ग्रन्थ मूलतः दार्शनिक, तर्क-बहुल एवं विचारप्रधान हैं । अतः यह स्वाभाविक है कि उनके ग्रन्थों में दार्शनिक / तार्किक ग्रन्थों के ही उद्धरण प्राप्त हों । इन उद्धरणों में अन्य परम्पराओं के साथ-साथ विशेष रूप से बौद्ध साहित्य के ही अधिक उद्धरण पाये जाते हैं । बौद्ध दार्शनिकों में भी इन्होंने धर्मकीर्ति के विचारों और उनकी युक्तियों को अधिक निशाना बनाया है। इसका कारण यही हो सकता है कि अकलंक के समय में बौद्धों का अधिक जोर था, उस पर भी धर्मकीर्ति ने और उनके विचारों ने अधिक धूम मचा रखी थी।
विवेच्य ग्रन्थों में कुछ ऐसे उद्धरण मिले हैं, जो स्पष्टतः ग्रन्थान्तरों से लिये गये दिखते हैं। उनमें कुछ ऐसे भी हैं जो कारिका या विवृति के ही अंग बन गये हैं, इनमें कोई उपक्रम वाक्य या संकेत नहीं होने से मूलकार द्वारा रचित प्रतीत होते हैं ।
उपर्युक्त ग्रन्थों में दूसरे-दूसरे ग्रन्थों के जो पद्य या वाक्य आदि उद्धृत हैं, उनके मूल निर्देश स्थलों को खोजने की कोशिश की गई है। बहुत से उद्धरणों का निर्देशस्थल अभी मिल नहीं सका है, उन्हें खोजने का प्रयास जारी है। यह भी प्रयत्न है कि इस तरह के तथा अन्य उद्धृत पद्य या वाक्य आदि जिनजिन ग्रन्थों में आये हैं, उनको भी एकत्रित कर लिया जाये, जिससे उनका तुलनात्मक अध्ययन किया जा सके।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org