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कमलेश कुमार जैन
Nirgrantha मिलता है 1 बहुत कुछ संभव है कि इसी विवृति रूप गद्यभाग का ही विवरणकार ने चूणि शब्द से उल्लेख किया हो । न्यायविनिश्चयविवरणकार वादिराज ने न्यायविनिश्चय के केवल पद्यभाग का व्याख्यान किया है।"
अन्यत्र उन्होंने यह भी लिखा है- "धर्मकीर्ति के प्रमाणविनिश्चय की तरह न्यायविनिश्चय की रचना भी गद्यपद्यमय रही है। इसके मूल श्लोकों की तथा उस पर के गद्य भाग की कोई हस्तलिखित प्रति कहीं भी उपलब्ध नहीं हुई। वादिराजसूरि ने इस पर एक न्यायविनिश्चयविवरण टीका बनाई है, परन्तु इसमें केवल श्लोकों का ही व्याख्यान किया गया है। अतः विवरण में से एक-एक शब्द छाँटकर श्लोकों का संकलन तो किया गया है, किन्तु गद्यभाग के संकलन का कोई साधन नहीं था, अतः वह नहीं किया जा सका। पर गद्य भाग था अवश्य" आदि ।
न्यायविनिश्चय की स्वोपज्ञ विवृति के अद्यावधि अनुपलब्ध होने पर भी मूल भाग में ऐसी अनेकानेक कारिकाएँ हैं, जिनके संगठन / निर्माण में पूर्ववर्ती आचार्यों के ग्रन्थों के वाक्यों या वाक्यांशों को बिना किसी उपक्रम या संकेत के सम्मिलित किया गया है। कारिका संख्या १/११० का प्रारम्भ गुणपर्यायवद् द्रव्यं-से किया गया है। यह तत्त्वार्थ सूत्र ५/३७ का वचन है।
कारिका १/११४ का पूर्वार्ध "सदोत्पादव्यय-ध्रौव्ययुक्तं सदसतोऽगते:"१० तत्त्वार्थसूत्र ५/३० का स्मरण कराता है । त. सू. का सूत्र इस प्रकार है-"उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत् । कारिका २/१५४ पर जो कारिका प्राप्त होती है, वह इस प्रकार है
अन्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ।
नान्यथानुपपन्नत्वं यत्र तत्र त्रयेण किम् ॥ यह कारिका परम्परा से पात्रकेसरिस्वामी कृत त्रिलक्षणकदर्शन की मानी जाती है । इसका बिना उपकम के यहाँ ग्रहण किया गया है ।
कारिका २/२०९ में "असाधनाङ्गवचनमदोषोद्भावनं द्वयोः । न युक्तं निग्रहस्थानमर्थापरिसमाप्तित:४। के द्वारा वादन्याय की कारिका "असाधनाङ्गवचन...नेष्यते१५ ॥" को समालोचना की गई है । कारिका ३/२११६ पर समन्तभद्रस्वामी कृत आप्तमीमांसा की प्रसिद्ध कारिका
सूक्ष्मान्तरितदूरार्थाः प्रत्यक्षाः कस्यचिद्यथा ।
अनुमेयत्वतोऽग्न्यादिरिति सर्वज्ञसंस्थितिः ॥ यथावत् ग्रहण की गयी है।
इसी प्रकार और भी अनेक सूत्र, वाक्य, वाक्यांश या कारिकाएँ इसमें ग्रहण की गयी है। यहाँ पर कुछ का ही संकेत किया है ! सवृत्ति सिद्धिविनिश्चय -
सवृत्ति सिद्धिविनिश्चय अकलंकदेव की विशुद्ध दार्शनिक / तार्किक रचना है। सिद्धिविनिश्चय मूल एवं उसकी स्ववृत्ति का उद्धार रविभद्रपादोपजीवी अनन्तवीर्यकृत सिद्धिविनिश्चयटीका की एकमात्र हस्तलिखित प्रति से किया गया है। इसमें १२ प्रस्ताव हैं, जिनमें प्रमाण, नय और निक्षेप का विवेचन किया गया है। जैसा कि पहले लिखा गया है कि अकलंकदेव कृत साहित्य में, विशेषकर उनके तार्किक ग्रन्थों
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