________________ Vol. 11 - 1996 शिरमोर दार्शनिक आचार्यप्रवर... वयादिस्नेहरौक्ष्यातिशायनात् [ऐसा] दिवाकरजी के वचनसे उन्होंने भाष्यसंमत मान्यता का ही अनुसरण किया है यह स्पष्टतया दिखाई देता है। 36 वें सूत्र में दिगंबर परंपरा में बन्धेऽधिकौ पारिणामिकौ ऐसा सूत्रपाठ है, जबकि श्वेतांबर परंपरा में बन्धे समधिको पारिणामिको ऐसा सूत्र पाठ है। दिगंबरमतानुसार द्विगुणस्निग्ध का द्विगुणरुक्ष के साथ और त्रिगुणस्निग्ध का त्रिगुणरुक्ष के साथ-ऐसे समगुणस्निग्ध का समगुणरुक्ष के साथ बंध नहीं माना जाता परंतु, भाष्यसम्मत पाठानुसारी श्वेतांबर परंपरा में इस प्रकार का (समगुणस्निग्ध का समगुणरुक्ष के साथ) बंध माना जाता है बद्धस्पृष्टगमा सम)-इस वचन से दिवाकरजी ने भाष्यसम्मत परंपरा को ही स्वीकार किया दिगंबर परंपरा में विद्यमान तत्त्वार्थवृत्तियों में पूज्यपाद नाम से प्रसिद्ध आचार्य देवनन्दि द्वारा रचित सर्वार्थसिद्धि सबसे प्राचीन वृत्ति है / अकलंक आदि सभी दिगंबर वृत्तिकार इस सर्वार्थसिद्धिमान्य सूत्र पाठ का ही समर्थन करते हैं / दिवाकरजी सर्वार्थसिद्धिकार से भी प्राचीन हैं / (इस विषयमें विस्तृत जानकारी के लिए देखें भारतीयविद्या के सिंधी स्मारक अंक में पं. सुखलालजी का लेख) क्योंकि पूज्यपाद ने सर्वार्थसिद्धि में दिवाकरजीकी बत्तीसी में से एक कारिकार्ध उद्धृत किया है। इसी पूज्यपादप्रणीत जैनेन्द्र व्याकरण में सिद्धसेनाचार्य का नामोल्लेख पूर्वक दिवाकरजी के मत का निर्देश भी किया गया है। यह, श्री मल्लवादिक्षमाश्रमण प्रणीत द्वादशारनयचक्र की वृत्ति में टीकाकार श्री सिंहसूरगणिवादिक्षमाश्रमण ने यत्रार्थो वाच्यं (वाचं ?) व्यभिचरति नाभिधानं तत् ऐसा शब्दनय का लक्षण तथाचाचार्य सिद्धसेन आह ऐसे नामोल्लेखपूर्वक उद्धृत किया है / और सभी स्थान पर सिद्धसेनाचार्य के नाम टीकाकार द्वारा उद्धृत किये प्राप्य वचन दिवाकरजी के ही हैं, इससे यह सिद्धसेनाचार्य भी दिवाकरजी ही थे ऐसी संभावना है / तत्त्वार्थभाष्य में (अध्याय 1) नय निरूपण में यथार्थाभिधानं शब्दः ऐसा शब्दनय का लक्षण आता है। इसके साथ सिद्धसेनाचार्य के नाम से उद्धृत किये गये शब्दनय के लक्षण को सूक्ष्मतासे तुलना है ऐसा स्पष्ट देखा जाता है। इससे भी इस बात की पुष्टि होती है कि - दार्शनिक शिरोमणि आचार्यप्रवर श्री सिद्धसेन दिवाकरजी ने तत्त्वार्थभाष्य का भी उपयोग किया है। निपाणि (महाराष्ट्र), सं. 2004 माघशीर्ष कृष्णा 10 ता. 5-1-1948 / 114-116, में मूलत: गुजराती में प्रकाशित हुआ था] र यहाँ यत्रार्थो वाच्यं न व्यभिचरति अभिधानं तत्-इस तरह अन्वय करने से यह वाक्य विधिप्रधान है और उसमें शब्दनय के लक्षण का विधान किया गया है यह बराबर समझ में आयेगा / तत्त्वार्थटीकाकार गंधहस्ती श्री सिद्धसेन मणि ने भी इस वाक्य को तथाचोच्यते 'यत्र ह्यों वाचं न व्यभिचरत्यभिधानं तत्' इस रीति से ही उधृत किया है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org