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________________ Vol. I-1995 कान्यप्रकाश के अनूठे टीकाकार... ५५ में उन्होंने उनके सुखदुःखवाद का उल्लेख मात्र भी नहीं किया है। शान्तरस के विभावों की चर्चा के समय ‘परमेश्वर के स्थान पर 'सर्वज्ञ' (= तीर्थंकर का विशेषण) परिभाषा का प्रयोग किया है। शान्तरस की स्वतंत्र रस के रूप में माणिक्यचन्द्र ने जो प्रस्थापना की है, वह भी अभिनवभारती अनुसार है (पृ० २७९) । शान्तरस के निरूपण में चन्द्रिका-कार के मत को माणिक्यचन्द्र ने सोमेश्वर से अधिक स्पष्ट रूप में समझाया है (पृ० २८३)। 'कस्स वा....' जैसे उदाहरण में माणिक्यचन्द्र ने कई मौलिक व्यंग्यार्थ निर्दिष्ट किये हैं। चित्रकाव्य की चर्चा में आचार्य माणिक्यचन्द्र ने मम्मट के स्थान पर आनन्दवर्धन का ही अनुसरण किया है। हास्यरस की चर्चा में माणिक्यचन्द्र ने सूक्ष्म मीमांसा प्रस्तुत की है। माणिक्यचन्द्र ने 'भ्रष्टोपचार प्रतीतये' द्वारा कुमारिल भट्ट की निरूढा लक्षणा की स्पष्टता बड़े ही रोचक ढंग से की है। प्रथम उल्लास की टीका में उन्होंने जो व्यापार और विषय की चर्चा की है, काव्यशास्त्रीय परंपराओं की दृष्टि से वह अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। . सप्तम उल्लास की टीका में उन्होंने रस के स्वशब्दवाच्यत्व का खण्डन करके आनन्दवर्धन, अभिनवगुप्त और मम्मट के अनुसार रस की ध्वन्यमानता का ही परिपोपण किया है (पृ० १७०)" ! माणिक्यचन्द्र की यह विशेषता है कि वे कभी कभी टीका के अन्तर्गत काव्यशास्त्रीय दृष्टि से महत्त्वपूर्ण सूत्रात्मक वाक्य प्रयुक्त करते हैं। जैसे- सप्तम उल्लास में ही, रसदोष के संदर्भ में "अनुसन्धानं हि सहृदयतायाः सर्वस्वम् (पृ० १७७) । द्रष्टव्य और भी- 'आस्वादकानां हि यत्र चमत्काराविघातः तदेव रससर्वस्वम्' क्योंकि- 'आस्वादायत्तत्वात् रसस्य' (पृ० १७९)। __ अष्टम उल्लास की टीका में प्रसाद गुण का स्पष्टीकरण करते हुए फिर एक बार उन्होंने आनन्दवर्धन के मत का समर्थन किया है- 'सर्गबन्धे तु रसा एव आराध्या इति' (पृ० २४१) । गुणचर्चा के दरम्यान माणिक्यचन्द्र ने प्रायः सभी पूर्वाचार्यों के गुणलक्षण उद्धृत किये हैं और उनका यथासंभव स्पष्टीकरण भी किया है" । 'एतन्मन्दविपक्वतिन्दुक फलं,' इत्यादि उदाहरण (संकेत - २, पृ० १६) समझाते हुए उन्होंने गुजराती भाषा का पर्याय भी दिया है। तिन्दुकफलं तद्धि अस्य टिम्बारूपमिति ख्याति: । दसवें उल्लास की टीका में अर्थालंकारों की चर्चा करते हुए माणिक्यचन्द्र ने गंभीर अलंकारचिन्तन प्रस्तुत किया है। इस पर स्य्यक के अलंकारसर्वस्व का प्रभाव स्पष्ट है। वर्णश्लेष के उदाहरण (= अलंकारः शङ्का. इत्यादि) को समझाते हुए माणिक्यचन्द्र ने अलंकारसर्वस्वकार का मत बतलाया है। रूय्यक ने इस उदा., में 'अर्थापत्ति' माना है। क्षीणः क्षीण. इत्यादि उदा० का भी माणिक्यचन्द्र ने सूक्ष्म विवेचन किया है, जिसमें भी रुय्यक के मत का निरूपण किया है। इससे विदित होता है कि माणिक्यचन्द्र को स्पष्टतया ज्ञात है, कि रुय्यक मम्मट के तरूण ममकालीन थे। अतः उन्होंने रुय्यक का मत समुचित रूप से प्रदर्शित किया है। यह तथ्य रविपाणि, झलकीकर और संकेत के संपादक श्री वेंकटनाथाचार्य से ध्यानच्युत हो गया है। इस तरह अलंकारों की व्याख्या करते हुए माणिक्यचन्द्र अलंकारसर्वस्व से प्रेरित होते दिखाई पड़ते हैं। वे अलंकारसर्वस्व को उद्धृत भी करते हैं। संकेत की पदावली में स्य्यक के शब्दों की छाया भी दिखाई पड़ती है। उनका कहना है कि का० प्र० का अलंकारचिन्तन गहन है, सुधियों = मतिमानों की बुद्धिरूपी शकटी भला 'संकेत' के पथप्रदर्शन बिना कैसे गमन कर सकती है। उदाहरण के रूप में माणिक्यचन्द्र का उपमा विवेचन । मम्मट का उपमालक्षण स्पष्ट करते हुए उन्होंने भोज का मत निर्दिष्ट किया है (पृ० ३३३) । शूर्पकर्णः, कुम्भोदर इत्यादि शब्द के विवेचन में हेमचन्द्र का प्रभाव स्पष्ट है। उपमा से व्यतिरेक का भेद सूक्ष्मेक्षिकापूर्वक बताया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229091
Book TitleKavyaprakash ke Anuthe Tikakar Manikyachandrasuri
Original Sutra AuthorN/A
AuthorParul Mankad
PublisherZ_Nirgrantha_1_022701.pdf and Nirgrantha_2_022702.pdf and Nirgrantha_3_022703.pdf
Publication Year1995
Total Pages10
LanguageHindi
ClassificationArticle & Ascetics
File Size652 KB
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