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गांधीजी की जैन धर्म को देन
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में स्नान करने आए और वे श्रत्र भिन्न-भिन्न सेवा क्षेत्रों में पड़कर अपना नगरपना सच्चे अर्थ में साबित कर रहे हैं। जैन गृहस्थ की मनोदशा में भी निष्क्रिय निवृत्ति का जो घुन लगा था वह हटा और अनेक बूढ़े जवान निवृत्तिप्रिय जैन स्त्री-पुरुष निष्काम प्रवृत्ति का क्षेत्र पसन्द कर अपनी निवृत्ति-प्रियता को सफल कर रहे हैं। पहले भिक्षु भिक्षुणियों के लिए एक ही रास्ता था कि या तो वे वेष धारण करने के बाद निष्क्रिय बनकर दूसरों की सेवा लेते रहें, या दूसरों की सेवा करना चाहें तो वेष छोड़कर अप्रतिष्टित बन समाजबाह्य हो जाएँ । गांधीजी के नए जीवन के नए अर्थ ने निष्प्राण से त्यागी वर्ग में भी धर्मचेतना का प्राण स्पन्दन किया। अब उसे न तो जरूरत रही भिक्षुवेष फैंक देने की और न डर रहा अप्रतिष्ठित रूप से समाजवाह्य होने का । अत्र निष्काम सेवाप्रिय जैन भिक्षुगण के लिए गांधीजी के जीवन ने ऐसा विशाल कार्य प्रदेश चुन दिया है, जिसमें कोई भी त्यागी निर्दम्भ भाव से त्याग का स्वाद लेता हुआ समाज और राष्ट्र के लिए श्रादर्श बन सकता है ।
जैन परम्परा को अपने तत्त्वज्ञान के अनेकान्त सिद्धान्त का बहुत बड़ा गर्व था वह समझती थी कि ऐसा सिद्धान्त अन्य किसी धर्म परम्परा को नसीब नहीं है; पर खुद जैन परम्परा उस सिद्धान्त का सर्वलोकहितकारक रूप से प्रयोग करन तो दूर रहा, पर अपने हित में भी उसका प्रयोग करना जानती न थी । वह जानती थी इतना ही कि उस वाद के नाम पर भंगजाल कैसे किया जा सकता है और विवाद में विजय कैसे पाया जा सकता है ? अनेकान्तवाद के हिमायती क्या गृहस्थ क्या त्यागी सभी फिरकेचन्दी और गच्छ गण के ऐकान्तिक कदाग्रह और झगड़े में फँसे थे । उन्हें यह पता ही न था कि अनेकान्त का यथार्थ प्रयोग समाज और राष्ट्र की सब प्रवृत्तियों में कैसे सफलतापूर्वक किया जा सकता है ? गांधीजी तख्ते पर आए और कुटुम्ब, समाज, राष्ट्र की सब प्रवृत्तियों में अनेकान्त दृष्टि का ऐसा सजीव और सफल प्रयोग करने लगे कि जिससे आकृष्ट होकर समझदार जैनवर्ग यह ग्रन्तःकरण से महसूस करने लगा कि भङ्गजाल और वादविजय में तो अनेकान्त का कलेवर ही है । उसकी जान नहीं ! जान तो व्यवहार के सत्र क्षेत्रों में अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग करके विरोधी दिखाई देने वाले बलों का संघर्ष मिटाने में ही है ।
जैन- परम्परा में विजय सेठ और विजया सेठानी इन दम्पती युगल के ब्रह्मचर्य की बात है । जिसमें दोनों का साहचार्य और सहजीवन होते हुए भी शुद्ध ब्रह्मचर्य पालन का भाव है । इसी तरह स्थूलिभद्र मुनि के ब्रह्मचर्य की भी कहानी है जिससे एक मुनि ने अपनी पूर्वपरिचित वेश्या के सहवास में रह
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