________________
३४
अरिहन्त
५२६
चलाने की शक्ति, गच्छ के हिताहित की जवाबदेही, अति गम्भीरता और देशकाल का विशेष ज्ञान आदि गुण चाहिए। साधुपद के लिए इन गुणों को प्राप्त करना कोई खास जरूरी नहीं है । साधुपद के लिये जो सताईस गुण जरूरी हैं वे तो आचार्य और उपाध्याय में भी होते हैं, पर इनके अलावा उपाध्याय में पच्चीस और आचार्य में छतीस गुण होने चाहिए अर्थात् साधुपद की अपेक्षा उपाध्यायपद का महत्त्व अधिक और उपाध्यायपद की अपेक्षा आचार्यपद का महत्त्व अधिक है |
(२५) सिद्ध तो परोक्ष हैं, पर अरिहन्त शरीरधारी होने के कारण प्रत्यक्ष हैं इसलिए यह जानना जरूरी है कि जैसे हम लोगों की अपेक्षा अरिहन्त की ज्ञान आदि श्रान्तरिक शक्तियाँ अलौकिक होती हैं वैसे ही उनकी बाह्य अवस्था में भी क्या हम से कुछ विशेषता हो जाती है ?
उ०- अवश्य । भीतरी शक्तियाँ परिपूर्ण हो जाने के कारण अरिहन्त का प्रभाव इतना अलौकिक बन जाता है कि साधारण लोग इस पर विश्वास भी नहीं कर सकते । अरिहन्त का सारा व्यवहार लोकोत्तर' होता है । मनुष्य, पशु पक्षी श्रादि भिन्न-भिन्न जाति के जीव अरिहन्त के उपदेश को अपनी-अपनी भाषा में समझ लेते हैं । साँप, न्यौला, चूहा, बिल्ली, गाय, बाघ आदि जन्मशत्रु प्राणी भी समवसरण में वैर द्वेष-वृत्ति छोड़कर भ्रातृभाव धारण करते हैं । अरिहन्त के वचन में जो पैंतीस गुण होते हैं वे होते । जहाँ अरिहन्त विराजमान होते हैं वहाँ मनुष्य आदि की कौंन कहे, करोड़ों देव हाजिर होते, हाथ जोड़े खड़े रहते, भक्ति करते और अशोकवृक्ष आदि आठ
४
1
औरों के वचन में नहीं
१ 'लोकोत्तर चमत्कारकरी तव भवस्थितिः ।
यतो नाहारनीारी, गोचरौ चर्मचक्षुषाम् ॥'
-
- वीतरागस्तोत्र, द्वितीय प्रकाश, श्लोक ८ । अर्थात् - हे भगवन् ! तुम्हारी रहन-सहन श्राश्चर्यकारक अतएव लोकोत्तर है, क्योंकि न तो आपका आहार देखने में आता और न नीहार ( पाखाना ) |
२ 'तेषामेव स्वस्वभाषापरिणाममनोहरम् ।
रूपं वचनं यत्ते धर्मावबोधकृत् ।'
- वीतराग स्तोत्र, तृतीय प्रकाश,
-
३ 'अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्सन्निधौ वैरत्यागः ' ४ देखो -- 'जैन तत्त्वादर्श' पृ० २ ।
Jain Education International
श्लोक
३।
पातञ्जल योगसूत्र ३५-३६ ।
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org