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________________ जैन धर्म और दर्शन (२२) प्र० -- — जीव तथा परमेष्ठी का सामान्य स्वरूप तो कुछ सुन लिया । अब कहिए कि क्या सब परमेष्ठी एक ही प्रकार के हैं या उनमें कुछ अन्तर भी है ? उ० – सब एक प्रकार के नहीं होते । स्थूल दृष्टि से उनके पाँच प्रकार हैं अर्थात् उनमें आपस में कुछ अन्तर होता है । (२३) प्र० – वे पाँच प्रकार कौन हैं ? और उनमें अन्तर क्या है ? ५२८. उ०—अरिहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु ये पाँच प्रकार हैं । स्थूलरूप से इनका अन्तर जानने के लिए इनके दो विभाग करने चाहिए । पहले विभाग में प्रथम दो और दूसरे विभाग में पिछले तीन परमेष्ठी सम्मिलित हैं । क्योंकि रिहन्त सिद्ध ये दो तो ज्ञान दर्शन - चारित्र-वीर्यादि शक्तियों को शुद्ध रूप में पूरे तौर से विकसित किये हुए होते हैं। पर श्राचार्यादि तीन उक्त शक्तियों को पूर्णतया प्रकट किए हुए नहीं होते किन्तु उनको प्रकट करने के लिए प्रयत्नशील होते हैं । अरिहंत सिद्ध ये दोही केवल पूज्य अवस्था को प्राप्त हैं, पूजक अवस्था को नहीं । इसीसे ये देवतत्त्व माने जाते हैं। इसके विपरीत आचार्य आदि तीन पूज्य, पूजक, इन दोनों अवस्थाओं को प्राप्त हैं । वे अपने से नीचे की श्रेणि वालों के पूज्य और ऊपर की श्रेणिवालों के पूजक माने जाते हैं । हैं। इसी से 'गुरु' तत्त्व (२४) प्र० - रिहन्त तथा सिद्ध का आपस में क्या अन्तर है ? इसी तरह श्राचार्य आदि तीनों का भी आपस में क्या अन्तर है ? उ० – सिद्ध, शरीररहित श्रतएव पौद्गलिक सब पर्यायों से परे होते हैं । पर अरिहन्त ऐसे नहीं होते। उनके शरीर होता है, इसलिए मोह, अज्ञान श्रादि नष्ट हो जाने पर भी ये चलने फिरने, बोलने आदि शारीरिक, वाचिक तथा मानसिक क्रियाएँ करते रहते हैं । सारांश यह है कि ज्ञान-चरित्र आदि शक्तियों के विकास की पूर्णता रिहन्त सिद्ध दोनों में बराबर होती है । पर सिद्ध, योग ( शारीरिक श्रादि क्रिया ) रहित और रिहन्त योगसहित होते हैं । जो पहिले अरिहन्त होते हैं वे ही शरीर त्यागने के बाद सिद्ध कहलाते हैं । इसी तरह श्राचार्य, उपाध्याय और साधुत्रों में साधु के गुण सामान्य रीति से समान होने पर भी साधु की अपेक्षा उपाध्याय और प्राचार्य में विशेषता होती है। वह यह कि उपाध्यायपद के लिए सूत्र तथा का वास्तविक ज्ञान, पढ़ाने की शक्ति, वचन - मधुरता और चर्चा करने का सामर्थ्य आदि कुछ खास गुण प्राप्त करना जरूरी है, पर साधुपद के लिए इन गुणों की कोई खास जरूरत नहीं है। इसी तरह आचार्यपद के लिए शासन Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.229080
Book TitleJiv aur Panch Parmeshthi ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSukhlal Sanghavi
PublisherZ_Darshan_aur_Chintan_Part_1_2_002661.pdf
Publication Year1957
Total Pages11
LanguageHindi
ClassificationArticle & Panch Parmesthi
File Size88 KB
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