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जैन धर्म और दर्शन
उसको व्यवहार नय की अपेक्षा से तथा अपूर्ण व अस्थायी समझना चाहिए । सारांश यह है कि पहला लक्षण निश्चय-दृष्टि के अनुसार है, श्रतएव में घटनेवाला है और दूसरा लक्षण व्यवहार-दृष्टि के अनुसार है, काल में नहीं घटनेवाला' है । अर्थात् संसार दशा में पाया जानेवाला और मोक्ष दशा में नहीं पाया जाने वाला है ।
तीनों काल अतएव तीनों
(१२) प्र० -- उक्त दो दृष्टि से दो लक्षण जैसे जैनदर्शन में किये गए हैं, क्या वैसे जैनेतर- दर्शनों में भी हैं ?
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उ०-- हाँ, साङ्ख्य, ध्योग, वेदान्त श्रादि दर्शनों में ग्रात्मा को चेतनरूप या सच्चिदानन्दरूप कहा है सो निश्चय नय" की अपेक्षा से, और 'न्याय,
१ 'अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तशक्ति हेतु के त्रिसमयावस्थायित्व लक्षणे वस्तुस्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवत्त पुद्गल संश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवहेतुर्विभक्तव्योऽस्ति ।' - प्रवचनसार, श्रमृतचन्द्रकृत टीका, गाथा ५३ ।
सारांश - जीवत्व निश्चय और व्यवहार इस तरह दो प्रकार का है । निश्चय जीवत्व अनन्त-ज्ञान-शक्तिस्वरूप होने से त्रिकाल स्थायी है और व्यवहार- जीवल्ल पौद्गलिक-प्राणसंसर्ग रूप होने से संसारावस्था तक ही रहने वाला है ।
२ 'पुरुषस्तु पुष्करपलाशवन्निर्लेपः किन्तु चेतनः ।’ - मुक्तावलि पृ० ३६ ॥ अर्थात् श्रात्मा कमलपत्र के समान निर्लेप किन्तु चेतन है ।
३ तस्माच्च सत्त्वात्परिणामिनोऽत्यन्तविधर्मा विशुद्धोऽन्यश्चितिमात्ररूपः पुरुषः ' पातञ्जल सूत्र, पद ३, सूत्र ३५ भाष्य । अर्थात् - पुरुष - श्रात्मा - चिन्मात्ररूप है और परिणामी सच्च से अत्यन्त विलक्षण तथा विशुद्ध है ।
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४ "विज्ञानमानन्दं ब्रह्म". - बृहदारण्यक ३६१२८ अर्थात् - ब्रह्म-आत्मा आनन्द तथा ज्ञानरूप है । ६ “निश्चयमिह भूतार्थं, व्यवहारं वर्णयन्त्यभूतार्थम् ।"
- पुरुषार्थसिद्ध्युपाय श्लोक ५ अर्थात्–तात्विक दृष्टि को निश्चय-दृष्टि और उपचार -दृष्टि को व्यवहार दृष्टि कहते हैं ।
५ “इच्छाद्वेषप्रयत्न सुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति । "
--- न्यायदर्शन १|१|१० अर्थात् - १ इच्छा, २ द्वेष, ३ प्रयत्न, ४ सुख, ५ दुःख और ज्ञान, ये आत्मा के लक्षण हैं ।
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